शब्दों का सारथी
मै शब्दों का सारथी हूँ
उनका हमदर्द भी हूँ ,पारखी भी हूँ
मेरे शब्द मुझसे डरते नहीं
कभी मुझसे कतराते नहीं
उनकी मुझसे यारी भी है/ दोस्ती भी है
हाँ बाज़ दफा रूठ जरूर जाते हैं
कभी वजह छोटी सी होती है
कभी बड़ी भी होती है
अमूमन विवाद से बचता हूँ
जब भी कुछ रचता हूँ
मेरे भाव भी कुछ कम नहीं
साफ साफ कह देते हैं
शब्द मे दम नहीं
बदलने को कहते हैं
अब बारी शब्दों की होती है
बिलकुल नहीं मानते हैं
भावों की क्या बिसात ?
बगैर हमारे कर भी क्या सकते हैं
है हिम्मत तो कर के दिखाएँ
तो फिर हम बताएं
खूब नए शब्द रचते रहो
बस शब्दकोश मे रखते रहो
और इनका हो भी क्या सकता है
हाँफते हुए दौड़ते रहेंगे
एक अदद उम्दा भाव की तलाश मे
यही उनकी नियति है
थक हार कर आ ही जाते हैं
न्यौता लेकर
मै मूक दर्शक की तरह
उनके इस तर्क कुतर्क को सुनता हूँ
कभी सुलगता भी हूँ
कभी कभी पिघलता भी हूँ
पर जल्दी ही इससे बाहर आ जाता हूँ
डोर हमेशा मेरे हाथ मे होती है
मेरे आदेश की अवमानना नहीं होती है
ईशारे को समझ आनन फानन
दोनों मे सुलह हो जाती है
फिर होता है अगाज़
बनने लगता है विचारों का कोलाज
भावों को आत्मसात कर लेते हैं शब्द
बन जाती है एक कविता
सृजन का सुख मन को खूब भिंगोता,,,,,,,,,
— राजेश कुमार सिन्हा