कविता

ये मेरा मन…

दुनिया की भीड़ में अकेला है।
किसी के पास छोटा, किसी के पास बड़ा है।।
वो रोता है पर कहता नहीं।
सहता है दर्द पर उसका कोई मरहम नहीं।।
शीशे सा नाजुक है वो कली सा कोमल है।
टूटता है जुड़ता है, जुड़कर फिर बिखर जाता है।।
बच्चों के गुल्लक सा वो यादों को संजोता है।
खोना चाहता नहीं उसे कोई पर किसी को देख खो जाता है।।
मन ही तो है ये मेरा, जो मुझे बांधे रखता है।
दिमाग की जंग में जो रोज हार जाता है।।
जानती हूं मैं यहीं अटल सत्य है।
मन के हारे हार है और मन के जीते जीत है।।

प्रो. वन्दना जोशी

प्रोफेसर पत्रकारिता अनुभव -10 वर्ष शैक्षणिक अनुभव- 10 वर्ष शैक्षणिक योग्यता- एम.कॉम., एम.ए. एम.सी., एम.एस. डब्ल्यू., एम.फील.,बी.एड., पी.जी.डी. सी.ए.