कविता

जहाँ अच्छा है सब कुछ

एक दुनिया
इसी दुनिया में
पर इससे बेहतर
जहाँ गम कम है
जहाँ लोग कम हैं
और जो कम लोग हैं
वे वो लोग हैं
जिनको मैंने ही है बनाया
अपने खातिर
खातिरदारी के लिए
जी हुजूरी के लिए
हर जरूरी के लिए
जो मैं नही कर पा रहा
या जो कह भी नही सकता
इस दुनिया में
वही सब कुछ
कभी करते हैं वे कुछ
कभी करता हूँ मैं कुछ
होता हो चाहे जो कुछ
होता है मेरे लिए ही
जैसे कोई विधवा
साल दर साल
गुमसुम-सी होती जाती है
सुखी आँखो से रोती जाती है
सिर्फ खुद की ही होती जाती है
अपनी ही दुनिया में खोती जाती है
रहती तो है इसी दुनिया में
पर इस दुनिया में कहां रहती
ये दुनिया तो बस
धुआँ भरती है उसकी हर सांस में
बादल बनती है उसकी हर आस में
पानी फेरती है उसकी हर प्यास में
पर उस दुनिया ऐसा नही है
वहाँ अच्छा है सब कुछ
वहाँ सब कुछ अच्छा है।

— प्रभात ‘प्रभात’

प्रभात 'प्रभात'

औरंगाबाद, बिहार सम्पर्क-7903784861