बबूल के पेड़ में आम नही लगते – मौजूदा नीति तो यही कहते
बिहार एक ऐतिहासिक राज्य जहाँ भगवान बुद्ध, दानवीर कर्ण, चाणक्य, सम्राट अशोक और गुरूगोविंद सिंह जैसे महापुरुषों ने सींचा सँवारा था।वही बिहार आज बदहाली के दल दल में नित धँसता जा रहा इसका जिम्मेदार कौन?
आकांक्षा थी कि सभी पढे,सभी का सम्मान हो, सभी एक समान विचारवान हो, सभी को रोटी, कपडा और मकान हो, कोई किसी पर आश्रित न रहे, कोई जाति न हो, राष्ट्र के लिए सभी धरती आकाश जल अग्नि वायु की तरह, प्रकृति की तरह एक दूसरे के वक्त पर दुःख और सुख में काम आयें और यह राज्य एक समाज एक परिवार एक सूर्य के समान चमक विखेरता रहे।अफसोस तब हुआ जब राजनीति पर महत्वाकांक्षा सवार होकर विलासिता के गोद में खेलने लगी प्रकृति की चमक और अकाक्षाएँ दम तोड़ने लगी।
कहीं बाढ़ तो कहीं कोरोना से तड़प रहा यह राज्य वेहद मुश्किल में है ।जहाँ लचर व्यवस्था के कारण सैकडो लोग नित मौत के आगोश में जाने को विवश हैं। नैतिकता पतन की ओर अग्रसारित है, कुपोषण गरीबी, बेरोजगारी, भाईचारा, जाति मजहब के आधार पर बँट गयी है।मानो आकाक्षाएँ मिट गई और सिर्फ अपनी महत्वाकांक्षा पाँव पसारने लगी ।
आज बाढ और कोरोना से तवाही का तांडव परेशान करने वाला है।सरकार के स्तर पर जो कार्य किए गए वह पूर्ण रूप से असंतोष पैदा करता है।जिसका जीता जागता उदाहरण मौत का बढ़ता आँकडा है।
भीषण बाढ ने कितने गाँव निगल लिये हैं। सरकार आंकडा तक जारी नही कर पा रही है।इस विवशता की जिम्मेदारी तो लेनी होगी और इस तीसरी मार झेलने को विवश जनता को समझाना एक कठिन चुनौती।
जन आकांक्षा और बढती राजनीतिक महत्वाकांक्षा के इस युद्ध में फिलहाल तो महत्वाकांक्षा भारी है । आकांक्षा पालने वालो जनता को भी अब समझना चाहिए कि खुद की ही भरोसा के वदौलत जीवन का निर्वहन होगा जब तक स्वार्थ है तभी तक सभी का साथ है वरना सब काली रात है ।
मौजूदा व्यवस्था समाज में बबूल के पेड़ के समान है जिससे सभी दल आम का फल खोज रहे जो शायद मिलना असंभव सा प्रतीत हो रहा है। समानता की गरिमा का ख्याल किये वगैर लोगों को कभी बाढ तो सुखाड और महामारी में वेरोजगार बनाकर रख दिया है जहाँ उन्हे घोर आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ रहा है।,केवल कुछ घरों में अनाज बांटकर निश्चिंत होना किसी भी स्तर पर जायज नही ठहराया जा सकता।
जबकि संविधान कहता है समाज में सभी के जान माल और दुःख के दिनों मे भेद भाव किये वगैर सरकार पूर्ण मदद करे। समाज में समानता और समरसता तभी स्थापित होगी जब सभी को जाति मजहब से परे हटकर सरकारी योजनाओ का लाभ मिलेगा पर इसे तो स्वार्थ की बेदी पर चढाकर महत्वाकाक्षा रूपी चादर से ढक दिया गया है जो अत्यंत ही दुखद है।
समाज में बढते भेद भाव को बढ़ावा देने की नीति से गरीबी नही समस्याएँ और जटिलताएँ बढती है जो अब हमें अस्पतालो शिक्षा और बाढ के रूप में उपहार स्वरूप मिल रहा है। राजनीतिक दल भी इस गंभीरता को समझते हुए चुप्पी साधने को विवश हैं,क्योंकि विरोध का सामना तो सभी को करना पड़ रहा है। इक्कीसवीं सदी में भी बिहारी समाज दो वक्त की रोटी के लिए समाज में अपना रोजगार तालाश रहा है। ।आने वाले दिनों में यह प्रमुखता से छाया रहेगा अब समय आ गया है कि ऐसे संवेदनशील मसले का समीक्षात्मक अध्ययन कर पर्याप्त उपाय किए जायँ।
— आशुतोष