साहस और धीरता
जो अटल खंभ-सा खड़ा रहे,
विपदा के झंझावातों में।
मन में साहस की ज्योति लिए,
जगता संकट की रातों में।
वो ही पाता है लक्ष्य सदा,
जीवन को सफल बनाता है।
उसने जितने सिद्धांत दिए,
जग उसको ही अपनाता है।
गिरि के मस्तक पर गिरती है,
पावस में अविरल वृष्टिधार।
अविचल रहकर वो सहता है,
हिमवर्षण का निर्मम प्रहार।
धारण करता है धैर्य सतत,
निज में वह मोद मनाता है,
फिर आता है मधुमय वसंत,
उसको भूषण पहनाता है।
पीकर अपमानों की ज्वाला,
पाञ्चाली नहीं अधीर हुई।
उसकी वो बिखरी केशराशि,
कौरव की मृत्यु-लकीर हुई।
निज अटल धैर्य का पुरस्कार,
उस द्रुपदसुता ने पाया था।
अंजलि में भर रक्त भीम ने,
दुःशासन का लाया था।
रघुपति ने भी निज जीवन में,
अगणित विपदाएँ झेली थी।
नित क्रूर काल-सी कानन में,
फिरती ताड़का अकेली थी।
लघु वय में ही रघुनंदन ने,
उस कुटिला का संहार किया।
इस साहस और शूरता का,
जगती ने जयजयकार किया।
संघर्षनिरत ही रहे सदा,
शिशुपन से गोवर्धनधारी।
दानवी शक्तियों ने मिलकर,
नित-नित लाईं विपदा भारी।
विप्लव को बाँहों में समेट,
प्रभु ने जग का उद्धार किया।
उन वासुदेव को वंदन है,
जिसने पवित्र संसार किया।
जाओ अतीत की ओर सुनो,
झंकार सुनाई देती है।
उस अभिमन्यु के बाणों की,
बौछार दिखाई देती है।
उसकी स्मृतियों को अब भी,
आँचल में धरा सुलाती है।
हल्दीघाटी की वीरभूमि,
राणा के यश को गाती है।
शूलों से आच्छादित पथ पर,
सानंद साहसी चलते हैं।
उनकी उमंग के झोंकों से,
विघ्नों के संकट टलते हैं।
युग के ललाट पर गौरवमय,
निज क्रांतिलेख लिख जाते हैं।
उन वीरों के पगवंदन में,
हम सादर शीश झुकाते हैं।
— निशेश दुबे