सुखसिंधु
चाहे लुट जाए धन-धरती,
मिट जाए विभव- स्वप्न सारा।
चहुँओर जलें अंगार तप्त,
या बहे शीत जल की धारा।
जग प्रेम करे या घृणा करे,
मन दोनों में सुख पाता है।
सुखसिंधु यहाँ लहराता है।
भवसागर में नित उठती हैं,
द्वंद्वों की बहु भ्रामक लहरें।
कुछ हर्षित करती हैं मन को,
कुछ घाव बनाती हैं गहरे।
ये हैं क्षणभंगुर- नाशवान,
इनसे झूठा ही नाता है।
सुखसिंधु यहाँ लहराता है।
साक्षी बनकर देखा करता,
मन में आते भ्रामक विचार।
इनसे निर्लिप्त रहा करती,
यह शाश्वत आत्मा निर्विकार।
प्रतिपल उठता यह उदधिज्वार,
यों ही उठ-उठ गिर जाता है।
सुखसिंधु यहाँ लहराता है।
इन्द्रियाँ विकल हो उठती हैं,
विषयों की मदिरा पीने को।
प्रभु प्रेरित करते हैं सबको,
संयम से जीवन जीने को।
तजकर विषयों का जटिल जाल,
हरि में ही मन रम जाता है।
सुखसिंधु यहाँ लहराता है।
इच्छाओं के रथ पर चढ़कर,
नर उलझन में ही चलता है।
कुछ खोने की चिंता रहती,
कुछ पाने हेतु मचलता है।
भगवान भला करते सबका,
उनसे ही कुछ मिल जाता है।
सुखसिंधु यहाँ लहराता है।
जो बीत गया,उसकी चिंता,
अज्ञानीजन ही करते हैं।
दुखमय भविष्य दुख लाएगा,
यह सोच-सोचकर डरते हैं।
अपना साथी है वर्तमान,
रस की बूँदें छलकाता है।
सुखसिंधु यहाँ लहराता है।
झूठी उपाधियाँ दे-देकर,
संसार सदा भरमाता है।
पथभ्रांत हमें करता प्रतिपल,
हिय में अभिमान जगाता है।
इस छद्म आवरण को तजकर,
मन परम शांति को पाता है।
सुखसिंधु यहाँ लहराता है।
— निशेश दुबे