उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में अकाल तथा कोहाट के दंगों में आर्यसमाज द्वारा पीड़ितों की सेवा
ओ३म्
ईश्वर, वेद और ऋषि दयानन्द भक्त महात्मा हंसराज जी और महात्मा आनन्द स्वामी जी का जीवन मानवजाति के उपकार एवं पीड़ितों की रक्षा के लिए समर्पित था। देश के किसी भाग में जब भी कहीं कोई अकाल, भूकम्प, अतिवृष्टि, महामारी तथा साम्प्रदाियक हिंसा होती थी, तो महात्मा हंसराज की प्रेरणा से महात्मा आनन्द स्वामी जी अपने दल बल सहित पीड़ितों की सेवा तथा उनके पुनर्वास कार्यों को करने के लिये वहां पहुंच जाते थे। इसके लिये वह न प्रदेश, न वहां की भाषा, न दूरी, न अपनी पारिवारिक समस्याओं तथा न ही अपने आर्थिक लाभ व हानि को देखते थे। वह जहां जाते थे वहां की पीड़ित जनता उन्हें देवदूत व फरिश्ता समझती थी। अकाल आदि से सन्तपत्प देश के अनेक भागों में के लोगों के बीच जाकर उन्होंने वहां पीड़ितों की रक्षा व सेवा के आश्चर्यजनक कार्य किये। प्रस्तुत लेख में हम उनके उड़ीसा तथा छत्तीसगढ़ के अकालों में आर्यसमाज तथा इन दो विभूतियों के सेवा व परमार्थ के कार्यों का उल्लेख कर रहे हैं। इन कार्यों में उर्दू पत्र दैनिक मिलाप की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। एक बार अंग्रेजों ने कोहाट (विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बना, वर्तमान में पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रोविन्स में है) के हिन्दुओं पर भी विधर्मियों से हिंसा व अत्याचार किये व कराये। इस घटना का उल्लेख भी अपने निष्पक्ष पाठकों के लिये प्रस्तुत कर रहे हैं। मनुष्य मुख्यतः दो प्रवृत्तियों के होते हैं। प्रथम सात्विक तथा इतर तामसिक व राजसिक प्रवृत्ति। इसमें मनुष्य के ज्ञान, विवेक तथा अज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आर्य व हिन्दू प्रायः सात्विक प्रवृत्तियों वाले होते हैं। वह देश व संसार के सभी मनुष्यों को अपने समान तथा ईश्वर की सन्तान समझते हैं। ऐसा ही सबको भी समझना चाहिये। परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं है। यदि होता तो देश में साम्प्रदाियक हिंसा कदापि न होती। क्रिया की कुछ प्रतिक्रिया भी होती है। अज्ञानता व बहकावें में भी मनुष्य अनुचित कार्यों को करता है। इन समस्याओं को दूर करना असम्भव सा कार्य है। इसमें पुरानी व नयी व्यवस्थायें सभी को असफल होते देखा जाता है। अब हम अकाल व कोहाट की घटनाओं आर्यसमाज की प्रशंसनीय भूमिका व सेवा-कार्यों का वर्णन करते हैं।
उड़ीसा का अकाल
धर्म और कर्म के क्षेत्र वास्तव में उसी भवन (निवास तथा कार्यस्थल) तक तो सीमित न थे। खुशहालचन्द जी (बाद में संन्यास लेकर महात्मा आनन्द स्वामी जी के नाम से प्रसिद्ध हुए) गृहस्थ में रहे या ‘मिलाप’ (उन दिनों वह पंजाब के सुप्रसिद्ध उर्दू मिलाप के सम्पादक एवं प्रकाशक थे) के मालिक बनकर रहे, उनका जीवन सार्वजनिक ही रहा। जो व्यक्ति सब जनों का हो गया, उसकी कर्मभूमि तो समूची धरती पर व्याप्त हो जाती है। आर्यसमाज का निमन्त्रण कितनी ही दूर से क्यों न मिला हो, वहां पहुंचना उनका धर्म और कर्म बन चुका था। 1925 ईसवी में भारत के कई भागों में अकाल ने लोगों का जीवन दूभर कर दिया। महात्मा हंसराज जी के निर्देश पर वह उड़ीसा जा पहुंचे। साथियों से परामर्श करके जगह-जगह राहत-शिविर स्थापित कर दिये। जिनके पास अन्न पकाने का भी साधन नहीं था, उन्हें पका-पकाया अन्न बांटा गया।
छत्तीसगढ़ में अकाल
उड़ीसा के अकाल-पीड़ितों की सहायता का काम अभी चल ही रहा था कि महात्मा हंसराज जी (दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज के संस्थापक सदस्य एवं जीवनदानी महात्मा) का पत्र मिला–‘‘उड़ीसा में विश्वस्त लोगों को सेवा-कार्य सौंपकर तुरन्त छत्तीसगढ़ को प्रस्थान कीजिए। वहां हजारों लोग भूख से बिलबिलाकर अपना धर्म भी छोड़ रहे हैं।” खुशहालचन्द जी ने सन्देश का मर्म जान लिया और मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ इलाके में पहुंच गए। भूखों को अनाज नंगों को वस्त्र, बेसहारों को शिविरों में रखकर रात-दिन सेवा-कार्य जारी रखा। जो लोग भूख के मारे थोड़े-से रुपयों में अपने बच्चे बेच रहे थे, उनको लगा कि आर्यसमाज के कार्यकर्ता भगवान् द्वारा भेजे गए फरिश्ते हैं। जिन बच्चों के माता-पिता और सगे-सम्बन्धी मर चुके थे, उन्हें आर्य अनाथालायों को भेजा गया। जो कई-कई दिनों से बीमार पड़े थे, उनकी ऐसी सेवा और उपचार किया गया कि मौत के मुंह से लौट आए। जिन्होंने पेट की आग बुझाने की खातिर दूसरा धर्म अपना लिया था, वे भी अपने धर्म में लौट आए। ऐसे स्थानों में आर्यसमाज की स्थापना हुई तो जनता को लगा कि ये पुण्यकर्मियों के केन्द्र हैं।
महात्मा खुशहालचन्द जी इन दिनों लाहौर से दैनिक उर्दू मिलाप का प्रकाशन करते थे। इस पत्र को पूरे पंजाब की हिन्दू जनता पढ़ती थी। इसमें प्रकाशित कोई भी समाचार देश की आर्यजनता सहित उर्दू पाठकों तथा राज्याधिकारियों तक भी पहुंचता था। अकाल से पीड़ित लोगों की सेवा तथा पुनर्वास कार्यों में इस पत्र की महती भूमिका है। महात्मा आनन्द स्वामी जी के जीवनी लेखक श्री सुनील शर्मा जी ने लिखा है कि ऐसे राहत-शिविर चलाने के लिए अन्न-धन आदि जुटाने में ‘मिलाप’ ने प्रमुख भूमिका निभाई। जब अकाल-पीड़ितों का सचित्र समाचार छपता तो लोगों के दिल भर-भर आते और वे खुले हाथों दान देते। दानियों की नाम-सूची छपती तो उनके द्वारा दिये गए आंकड़े पढ़कर दूसरों को भी पुण्य और यश कमाने की प्रेरणा मिलती। दान में प्राप्त धन अथवा वस्त्रों का सदुपयोग हजारों नर-नारियों और किशोर-किशोरियों के धर्म और सतीत्व की रक्षा का कारण बना, यह पढ़कर दानियों को और भी अधिक दान-जुटाने की प्रेरणा मिलती। निस्सन्देह ‘मिलाप’ अपने उस उद्देश्य में सफल सिद्ध हुआ जिसके लिये इस पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया गया था। खुशहालचन्द जी की लगन और मेहनत से ‘मिलाप’ के पाठकों की संख्या निरन्तर बढ़ती गई।
कोहाट में हिन्दू विरोधी हिंसा और आर्यसमाज का राहत कार्य
गुलामी के दिनों में आर्यसमाज व उसके अनुयायियों ने अन्याय, अत्याचार व प्राकृतिक प्रकोप से पीड़ितों की जी जान से रक्षा तथा सेवा कार्य को किया। ऐसा ही कोहाट (वर्तमान में पाकिस्तान में) में साम्प्रदायिक जनसंहार की घटना होने पर भी आर्यसमाज ने पीड़ित बन्धुओं के प्रति किया। इसका पूरा विवरण श्री सुनील शर्मा, जीवनीकार के शब्दों में देना हमें समीचीन प्रतीत होता है। घटना इस प्रकार है कि अंग्रेज सरकार भारतवासियों में फूट डालने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे प्रयोग में ला रही थी, जबकि ‘मिलाप’ जैसे समाचारपत्र निरन्तर इस प्रयत्न में थे कि सभी भारतीय एकजुट होकर अंग्रेजों से अन्तिम लड़ाई लड़ें और उन्हें यहां से चले जाने को विवश कर दें। इस आंख-मिचैनी में अंग्रेज हर बार नये-से-नया दमन-चक्र चलाते रहे। सन् 1930 में, कोहाट शहर में हिन्दुओं और मुसलमानों को अंग्रेजों ने अलग करने की चाल चली और कुछ कबायली लोगों को हथियार और पैसा देकर हिन्दुओं पर हमला करा दिया। हिन्दुओं की दुकानें लूट ली गईं, मकान जला दिये गए, औरतें भगाकर ले गए और मर्दों को मौत के घाट उतारा गया।
खुशहालचन्द जी से यह सब सहन नहीं हुआ। महात्मा हंसराज जी का आशीर्वाद लेकर वह अपनी टोली के साथ कोहाट पहुंच गए और उजड़े हुए लोगों के पुनर्वास में जुट पड़े। ‘मिलाप’ में भी यह घोषणा निर्भीकतापूर्वक की गई कि ‘इस जघन्य काण्ड के जिम्मेदार कोहाट के फौजी कमाण्डर (कैप्टन एडवर्ड) हैं जिन्होंने शान्तिप्रिय हिन्दू नागरिकों को अपनी देखरेख में मरवाया और हत्यारों पर एक भी गोली नहीं दागी।’ इस समाचार से समूचा देश हतप्रभ रह गया और लोग अपने शासकों के प्रति घृणा से उबल पड़े। इस व्यापक निन्दा से अंग्रेज चैंक उठे। फौजी कमाण्डर (कैप्टन एडवर्ड) ने आदेश दिया कि ‘खुशहालचन्द को तुरन्त गिरफ्तार कर लिया जाय।’ शुभचिन्तकों ने खुशहालचन्द जी को राय दी कि ‘आप जल्दी से कोहाट छोड़कर चले जाइये। यहां बन्दी बना लिये गए तो जीवन-भर नहीं छूट पाएंगे।’ खुशहालचन्द जी ने अवसर की नजाकत को भांप लिया। वह चुपके से रेलवे स्टेशन जा पहुंचे और टिकट लेकर रेलगाड़ी में बैठ गए। उधर फौजी कमाण्डर स्वयं उन्हें ढूंढता रेलवे स्टेशन को लपका आ रहा था। कोहाट का स्टेशन मास्टर संयोग से खुशहालचन्द जी का शुभचिन्तक था। इससे पहले कि फौजी कमाण्डर प्लेटफार्म पर पहुंचता, स्टेशन मास्टर ने स्वयं हरी झंडी दिखा दी और रेलगाड़ी छुक-छुक करती दूर निकल गई।
फौजी कमाण्डर को जब पता चला कि शिकार हाथ से निकल चुका है तो वह चीख उठा-‘गाड़ी समय से पहले कैसे छूट गई? गाड़ी को वापस लौटाओं।’ किन्तु स्टेशन-मास्टर ने नम्रता से टाल दिया–‘गाड़ी तो इतनी दूर जा चुकी है कि वापस लौट नहीं सकती। रहा समय का सवाल, तो हमारी घड़ी के अनुसार गाड़ी अपने समय पर ही छूटी है।’ हालांकि, पूरे पांच मिनट पहले गाड़ी रवाना कर दी गई थी। इस तरह फौजी कमाण्डर घायल सांप की तरह बल खाता और विष उगलता रह गया। इस सिलसिले में खुशहालचन्द जी पर मान-हानि का अभियोग भी चला, किन्तु ऐसे अभियोगों से माननीय जज भी उकता जाते हैं और यह अभियोग भी अपने-आप ठंडा पड़ गया।
जब हम महात्मा हंसराज जी तथा महात्मा आनन्द स्वामी जी के त्याग, सेवा व समर्पण का जीवन देखते व पढ़ते हैं तो इन युगपुरुषों की भावनाओं व कार्यों के प्रति आंखे नम हो जाती हैं और सिर झुक जाता है। देशवासियों को इन महापुरुषों से प्रेरणा तथा इतिहास की घटनाओं से सीख लेनी चाहिये। इसी से देश, जाति व धर्म की रक्षा हो सकती है। हमारा सौभाग्य है कि हमने महात्मा आनन्द स्वामी जी के दर्शन किये हैं। महात्मा आनन्द स्वामी जी के पौत्र श्री पूनम सूरी जी इस समय डी0ए0वी0 स्कूल एवं कालेज प्रबन्धन समिति, दिल्ली के प्रधान है। वह आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली के भी प्रधान है। देश भर की डी0ए0वी0 स्कूल व कालेज प्रबन्धन समिति से जुड़ी संस्थायें ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के भक्त श्री पूनम सूरी जी के नेतृत्व में प्रशंसनीय प्रगति कर रहीं हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य