कितने वक़्त से जुबां से कोई बात निकाली ही नहीं
कितने वक़्त से जुबां से कोई बात निकाली ही नहीं
और निकाले भी तो कैसे, कोई शख़्स खाली ही नहीं
अब अफ़सोस होता है अपनी तमाम दुनियादारी पर
खुद से ही बातें कर सकें, ऐसी कला पाली ही नहीं
हर लम्हा, हर अहसास तक खर्च कर दिया दूजों पर
अपनी जरूरत की चीज़ें तक मैंने सम्भाली ही नहीं
आसमान तक उठ गया होता मैं भी औरों की तरह
पर भरे बाज़ार में भी अपनी कीमत उछाली ही नहीं
बहुत आसान हो सकता था अपनी ज़िंदगी का सफर
लेकिन रकीब की दी हिदायत भी मैंने टाली ही नहीं
अकेलापन भी इतना ज़रूरी होगा, क्या पता था हमें
अकेला होके भी अकेले रहने की आदत डाली ही नहीं
— सलिल सरोज