भँवरा डोले
भँवरा बनकर डोल रहा है ,
मारा मारा फिर रहा है ,
हर एक से बातें करता ,
कहता है वह सँवर रहा है ।।
गुलदस्ता बनकर मुस्काना ,
अपनी पीड़ा को झुठलाना ,
बात बहुत गहरी करते है ,
पर काम न आया इठलाना ।।
बलि चढे या फूल खिले ,
गूलों से कब गूल मिले ,
भँवरा बनकर डोल रहा ,
पर कहाँ अब चैन मिले ।।
नींद हवा हो चुकी सारी ,
झुरमुट पड रहा है भारी ,
नहीं कर पाया वह खुश ,
जीती बाजी हारी सारी ।।
विनोद कुमार जैन वाग्वर सागवाड़ा