बाढ़ की विभीषिका
आये जब यह बारिस का मौसम
दिल बहुत घबराता रहता है मेरा
मैं बिहार का अबला ग्रामीण हूँ
बाढ़ की विभीषिका से नाता मेरा।
यह बारिस अमीरो को शकून देती
गरीबों के छप्पर को तो चूअन देती
भींगते बदन और रोजी न रोजगार
आशा में दिन निकला थम जा बरसात ।
नदियों में उबाल देख डर लगा रहता
घर तो बहेगा ही फसल भी बर्बाद
हर वर्ष हमलोगों को देती दोहरी मार
बाढ़ से निजात का कोई न करता उपाय।
बचपन से देख रहा सबका यही हाल
सरकारें बदलती गयी नहीं बदली चाल
बिहार को आगे नही पीछे ले जाते हैं
हर वर्ष सरकार व यह नदियों की धार।।
फिर शूरू होता बंदरबाट का धंधा
लाखो पैकेज बनते करोड़ों के चंदे
कुछ बांटकर, खूब चलता गोरख घंघा
फिर वहाँ घडियाली आँसू जाकर बहता।
यह विवशता भरी खेल हमसे खेले
हम ग्रामीण फिर भी इनको न बोले
यह जीवन कैसे चले इनपर चुप कैसे रहे
सवालजबाब जब हो ये विपक्ष को बोले।
— आशुतोष