रंग गोरा ही देते
थोड़ा ही देते
लेकिन रंग गोरा ही देते
इस लाचार बदन पे
न स्याह रातों का बसेरा देते
कैसा खिलेगा यौवन मेरा
कब मैं खुद पे इतराऊँगी
उच्छ्वास की बारिश करा के
न कोहरों का घना पहरा देते
ढिबरी की कालिख सी
कलंकिनी मैं घर में
जब मुझे जन्म ही देना था
तो ऐसे समाज का न सेहरा देते
कौन मुझे अपनाएगा
और कब तक मुझे सह पाएगा
अपने तिरस्कृत होने की पीड़ा भूल जाऊँ
तो घाव कोई इससे भी गहरा देते
मैं चुपचाप सुनती रहूँ
और मैं कुछ भी ना बोलूँ
जिस तरह यह तंत्र अपंग है
मुझे भी अन्तर्मन गूँगा और बहरा देते
मैं काली हूँ
या सृष्टि का रचयिता काला है
आमोद-प्रमोद के क्रियाकलापों से उठकर
हे नाथ ! अपनी रचना भी लक्ष्मी स्वरूपा देते
मुझे नहीं शर्म मेरे अपनेपन से
मैं बहुत खुश हूँ मेरा,मेरे होने से
पर जो दुखी है,कलंकित हैं और डरे हुए हैं
उनकी बुद्धिबल को भी कोई नया सवेरा देते
— सलिल सरोज