जीवन ही अब भार मुझे
मेरा अपना इस जग में , आज़ अगर प्रिय होता कोई।
मैंने प्यार किया जीवन में, जीवन ही अब भार मुझे।
रख दूं पैर कहां अब संगिनी, मिल जाए आधार मुझे।
दुनिया की इस दुनियादारी, करती है लाचार मुझे।
भाव भरे उर से चल पड़ता, मिलता क्या उपहार मुझे।
स्वप्न किसी के आज उजाडूं, इसका क्या अधिकार मुझे।
मरना -जीना जीवन है, फिर छलता क्यों संसार मुझे।
विरह विकल जब होता मन, सेज सजाकर होता कोई।
विकल, बेबसी, लाचारी है,बाँध रहा दुख भार मुझे।
किस ओर चलूं ले नैया, अब सारा जग मंजधार मुझे।
अपना कोई आज हितैषी, देता अब पुचकार मुझे।
सहला देता मस्तक फिर यह, सजा चिता अंगार मुझे।
सारा जीवन बीत रहा यों, करते ही मनुहार मुझे।
पागल नहीं अबोध अरे, फिर सहना क्या दुत्कार मुझे।
व्यथा विकल भर जाता मन, पास खड़ा तब रोता कोई।
फूलों से नफ़रत सी लगती, कांटों से है प्यार मुझे।
देख चुका हूं शीतलता को, प्रिय लगता है अंगार मुझे।
दुख के शैल उमड़ते आयें, सुख की क्या परवाह मुझे।
भीषण हाहाकार मचे जो, आ न सकेगी आह मुझे।
नहीं हितैषी कोई जग में, यही मिली है हार मुझे।
ढूँढ चुका हूँ जी का कोना, किन्तु मिला क्या प्यार मुझे।
पग के छाले दर्द उभरते, आँसू से भर धोता कोई।
— कालिका प्रसाद सेमवाल