कुलक्षणी औरत
मैं जब भी गाँव जाता तो देखता कि रामदास की घरवाली गृहस्थी के काम में हर पल उलझी ही रहती! बेचारी को पल भर की फुर्सत नहीं थी घर के काम से, शान-शौक तो जैसे सब कब के छूट चुके थे! सिर पर जिम्मेदारी का बोझ था, देखने में लगता जैसे बीमार हो बेचारी! वहीं दूसरी ओर उसका पति रामदास निहायत निठल्ला,कामचोर, पत्तियाँ खेलते हुए समय बेकार करता रहता था! घर की स्थिति बेहद नाजुक थी!गरीबी तो मानो छप्पर पर चढ़कर चिल्ला रही थी कि उसका हमेशा से शुभ स्थान रामदास का घर ही रहा है! इस बार मैं चार महीने से गाँव नही जा पाया था,लेकिन चार महीने बाद में जब गाँव गया तो देखा कि रामदास का तीन कमरे का पक्का मकान बना हुआ था! रामदास ने एक आटो भी खरीद ली थी! सब कुछ बहुत अच्छा हो गया था ! मैं ने रामदास से पूछा कि इतना परिवर्तन अचानक कैसे हुआ ? और तुम्हारी घर वाली नही दिख रही है? रामदास बोला – भैया जी मेरी घर वाली एक कुलक्षणी औरत थी! अब वह इस दुनिया में नहीं है उसके मरते ही मेरे घर का दारिद्र दूर हो गया! मैं ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा उसकी मृत्यु कैसे हुई? रामदास ने बताया कि उसकी मृत्यु विषैले सांप के काटने से हुई! उसकी मृत्यु के उपरांत शासन से जो आर्थिक मदद मिलती है सर्पदंश से मौत होने वाले लोगों के पारिवारिक जनों को उसी पैसे से मेरी किस्मत पलट गई घर बन गया,आटो खरीद ली, और दूसरी शादी भी कर ली! रामदास सारी बातें एक सांस में कह गया! अब मैं खामोश था कि एक औरत सारी उम्र दुख दर्द सहकर रामदास के घर को सांवरने में गुजार दी,उसके मरणोपरांत पैसे मिले, रामदास कि किस्मत के ताले खोलकर गई वो इस दुनिया से,फिर भी बदले में उस बेचारी औरत को नवाजा गया “कुलक्षणी औरत” के अलंकरण से, मेरा गला रुंध गया था आंखे सजल थीं और मैं स्त्री जीवन और स्त्रियों के संघर्ष के विषय में सोचते हुए वापस शहर लौट आया था!
— आशीष तिवारी निर्मल
कोई भी औरत कुलक्षिणी नहीं होती ! हम पुरुष कुलक्षण होते हैं, बंधुवर !