घबराऊँ क्यूँ
राहों में मेरी शूल विछे हैं
ठोकर से घबराऊँ क्यूँ
जो बोयी हूँ वह काटूँगी
अंतस नीर बहाऊं क्यूँ
देख किसी की खुशियों को
उस पर नजर लगाऊं क्यूँ
धन दौलत शोहरत किसी की
देख के मै घबराऊँ क्यूँ
दो गज में ही जाना है
यही जीवन का फसाना है
जन्म सार्थक अभी मैं कर लूँ
बाद में मै पछताऊँ क्यूँ
तुझमें मन प्रभु लगा रहे
हाथ तेरा मेरे सर पे रहे
फिर डर- डर कर दुनियाँ से
अपना जीवन बिताऊँ क्यूँ
देख किसी के महलों को
हे प्रभु मै ललचाऊँ क्यूँ
मुठ्ठी बाध के आये है
हाथ फैला के जायेंगे
ना कोई ले गया है ऊपर
ना ही हम ले जायेंगे
अमर तो मै भी नही हूँ जग में
इतना फिर इतराऊँ क्यूँ
शूल विछे है राहों में
ठोकर से घबराऊँ क्यूँ।
— ऋतु ऊषा राय