नौका
दिशाओं के उदर में गीत गाने को चली नौका।
उफनते क्लेश-सागर को दबाने को चली नौका।
कहीं सूना पड़ा आँगन बजाता शोक-शहनाई।
सुहानी याद को जैसे जगाने को चली नौका।
छलकती है सुरालय में सतत अंगूर की हाला।
कि गहरे घाव पर मरहम लगाने को चली नौका।
मधुर नवप्रात में कोयल सुरीली तान भरती है।
निशा के मौन पर जयनाद ढाने को चली नौका।
सिसकते बाग में मधुवात छेड़े राग बासंती।
शिशिर की गोद सरसाती झुमाने को चली नौका।
निराशा के घने बादल हृदय में हैं जहाँ छाए।
नवल उत्साह को उर में बहाने को चली नौका।
यही इतिहास है कहता धरा पर पाप जब बढ़ता,
अनय के पार जाने की सुझाने को चली नौका।
दया की भावना को स्वाँस-पथ में घोलकर देखो।
लगे शुचि गंध जीवन में बसाने को चली नौका।
जगत की प्राण-रक्षा में गरल की धार पी लो तुम।
समझ लेना सुखों के धाम जाने को चली नौका।
— निशेश दुबे