दोहरे किरदार
बाहर से खुश हैं अंदर गमों का बाजार लेके चलते हैं
लोग चेहरे पे चेहरे और दोहरे किरदार लेके चलते हैं।
रोटी,धोती,मकान की महती पूर्ति के लिए ही तो यहाँ
हम अपने कंधों पे दुनिया भर का भार लेके चलते हैं।
दिल में है हसरत स्वंय लिए बस फूल पाने की मगर
दूसरों की खातिर निज हाथों में खार लेके चलते हैं।
परहित में काम कोई किया ना फूटी कौड़ी का मगर
दिखावे के लिए सिर्फ जुबानी रफ्तार लेके चलते हैं।
पछुआ हवा का असर उनपर इस तरह हावी हुआ है
अब कहाँ वो अपनी संस्कृति,संस्कार लेके चलते हैं।
वो क्या जमाने का भला कर पाएंगे तुम सोचो निर्मल
जो औरों के लिए केवल दिल में गुबार लेके चलते हैं।
— आशीष तिवारी निर्मल