बबूल
नीरव पथ सुनसान फिजा में,
एक अकेला मैं कुरूप बबूल।
करते जाते मनचाही क्रिया,
बागों वालों की है भूल।
सड़क किनारे उजड़ बस्ती में,
मैं खुश हूँँ अपनी मस्ती में।
माना उपेक्षित हूँँ मैं,
फलदार छायादार वृक्षों से,
कट जाता हूँँ आमों के लिए,
उजड़ जाता हूँँ बागों के लिए।
है उचित जन समुदाय की पीड़ा—
क्यों बिखरे महल किसी का,
किसी गरीब की झोपड़ खातिर !
चूस रक्त कतरा-कतरा ,
बन बैठे राजा भोज, बड़े शातिर !
जो जितना तपता है,
शीतल उतना ही होता है।
गुण भारी होते हैं रूपों से,
गरीब कम न होते भूपो से।
हूँ प्रतिनिधि शोषित,दलित,वंचितों का,
धकेले गए जो हाशिये पर,
उन सबका मैं सहचर हूँँ।
काले तने पर पड़ी दरारें जो मेरे !
उनकी काली देह फटी बिवाई सम है।
कम पानी से भीषण गर्मी में भी,
जीने की चाहत रखता हूँँ !
विषम परिस्थिति में भी उनमें,
जीने की आशा भरता हूँँ ।
कम पानी भीषण गर्मी में,जीने की खातिर !
अपनी पत्तियों को छोड़ देता हूँँ।
आवश्यकता विकट समय में कर लो कम,
ये भी उनको कहता हूँँ।
गरज-गरज कर मेघा आये,
सावन की फुहारे आये,
बलिहारी हो जाता हूँँ,
धरा को पीले फूलों से,
आकर्षण भर-भर लाता हूँँ।
आय सुख के दिन जब भी,
अर्पण करना मत भूलना,
ये उनको सिखलाता हूँँ।
पीड़ित वंचित समुदायों को,
जीवन जीना सिखलाता हूँँ।
भेषज बन भी बहुत काम का,
पूछो तुम वैद्य को !
सूखे पत्ते गर्भिणी खाये,
अनुपम सुंदर बालक पाये।
पंचांग मेरा गुण भंडार,
अत्यार्तव प्रमेह अर्श नेत्र रोग,
अलग अलग अनुपान से करे भोग।
जितनी दाह मैं सहता हूँँ,
पाये जो क्वांथ मेरा,
देह दाह को उतना ही शीतल करता हूँ।
मेरे सम ही शोषित पीड़ित,
गुणाधिक्य के भंडार।