सामाजिक

स्त्री विमर्श और महिलायें

स्त्री विमर्श एक ऐसा मुद्दा है जो आज हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग अहमियत रखने के साथ साथ सामाजिक स्थितियों और मान्यताओं को भी बखूबी प्रभावित कर रहा है। आज स्त्री और  पुरुष दोनों ही साहित्यकारों द्वारा स्त्री विमर्श को उकेरने वाले इनके लेख या इनकी कहानियां समाज में विचारों के मंथन के लिए एक सशक्त मंच प्रदान कर रही हैं.इसमें कोई दो राय नहीं की यह मंच आज स्त्री संवेदनाओं के नए धरातल को खोजने में मदत कर रहा है। इसके अतिरिक्त इस मुद्दे पर आज न जाने कितनी परिचर्चाएं होती रहती हैं ,बहुत सी किताबेंयह लहार  लिखीं जा रही हैं और यहां तक की कई शोध प्रबंध भी लिखे जा चुके हैं। बेशक ,आज स्त्री विमर्श की हवा ने महिलाओं के उत्थान या उनकी प्रगति की दिशा में एक सराहनीय और सकारात्मक कार्य किया है। शायद ,यह उसका ही प्रभाव है कि आज स्त्री इस पुरुष प्रधान समाज की व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ी हुई  अपनी आवाज बुलंद कर पा रही है।

सच कहा जाए तो आज स्त्री विमर्श की दिशा और दशा के मूल में कहीं न कहीं “स्त्री अस्मिता ” के तलाश का  मुद्दा जोर पकड़ रहा है जो अंततः महिला सशक्तिकरण को हवा दे रहा है। इसके अतिरिक्त आभासी दुनिया और सोशल मीडिया भी आज स्त्री विमर्श को लेकर वकाफी गंभीर दिख रहा है। इसके अलावा ई -पत्रिकाओं आदि में भी बहुत कुछ लिखा जा रहा जो इस बात का बखूबी एहसास कराता है कि जागरू कता के स्तर पर कम से कम पूरे समाज पर

स्त्री विमर्श की लहर तो है  ही। साथ ही यह भी कहने से नहीं होना चाहिए कि यह लहर कहीं न कहीं स्त्री के मन में चलने वाले द्वन्द को पहचानने या समझने की कोशिश कर रही है। और ,जब हम इस कोशिश के क्रम में स्त्री से जुड़े मुद्दे और उनसे जुड़े समीकरणों को देखने की कोशिश करते हैं तो हमें कुछ सवालों का सामना करना पड़ता है जिनका सही जबाब हमें नहीं मिल पाया है।

हमारे शास्त्रों में स्त्री को “देवी “कहा जाता है ,उसकी पूजा की जाती है ,विभिन्न श्लोकों के सहारे उसका महिमा मंडन किया जाता है अथार्त थोड़े में कहें तो हमारे लिए वह श्रद्धेय होती है। पर क्या वास्तविक स्थिति ऐसी ही है ?जाहिर है इसका जबाब नकारात्मक ही मिलेगा साथ ही साथ इससे जुड़ा एक दूसरा सवाल भी खुद ब खुद खड़ा हो जाता है। मसलन ,जब हम किसी को देवी मान लेते हैं तो वह सामान्य स्थिति नहीं रहती बल्कि असामान्य स्थिति हो जाती है। अथार्त ,तार्किक स्थिति  बनती  है  कि वह सामान्य जीवन नहीं जी सकती।  तो क्या ऐसा किसी सोची समझी योजना के तहत किया गया कि वह कभी भी सामान्य जीवन की हक़दार नहीं रहे ?दुसरे शब्दों में कहें तो परम्परा ,शास्त्र ,या धर्मग्रंथों के नाम पर उसके शोषण की परम्परा बदस्तूर जारी है।

इसमें कोई दो राय नहीं की माँ बनना हर स्त्री के जीवन का चरमोत्कर्ष होता है पर कभी कभी यही मातृत्व स्त्री की सबसे बड़ी नेमत होने के साथ साथ उसके लिए समस्या भी बन जाती है क्योंकि वह अपने मातृत्व से ऊपर कुछ सोच ही नहीं पाती। इसकी वजह यह होती है कि भावनात्मक रूप से वह अपने बच्चों से इस कदर जुडी होती है कि उसे अपनी शख्सियत या वकार का ख्याल भी नहीं आता। बेशक आज महिलायें आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने की दिशा में अग्रसर हैं और उन्होंने अपना मुकाम भी हासिल कर लिया है पर इसके साथ ही उनकी जिम्मेवारी दोहरी हो गई है।  वे अपने दफ्तर में या जहां भी कार्यरत हैं ,अपनी जिम्मवारियों को पूरी संजीदगी से निभाती हैं तो दूसरी तरफ घर की जिम्मवारियों का दारोमदार भी उनके ही ऊपर होता है। इसके साथ ही कार्यस्थल पर होने वाला यौन उत्पीड़न भी इन्हें कम परेशान नहीं करता। विशाखा गाइडलाइन के तहत कार्य स्थल के लिए बने तमाम नियमों और कानूनों के बावजूद वरिष्ठ पुरुष अधिकारियों द्वारा जूनियर महिला कर्मचारियों के यौन उत्पीड़न की घटनाएं हर दुसरे या तीसरे दिन सुनने को मिल जाती हैं।

हमारे समाज में वर्ण व्यवस्था को आज भी महसूस किया जा सकता है। पर इन सबमे एक बात बहुत सामान्य दिखती है ,वह है महिलाओं की स्थिति। यह विडम्बना ही कही जाएगी की किसी भी जाती में महिलाओं की स्थिति कमोबेस एक सी ही दिखती है। इनके शोषण का स्तर और तरीका भले ही अलग हो पर शोषण होता ज़रूर है उनका। इसी कड़ी में यह भी कहा जा सकता है कि महिला चाहे किसी भी जाति या वर्ण की हो ,आज हर तीसरी या चौथी महिला की जिंदगी में एक बिखराव सा दिखता है ,वह टूटी हुई सी दिखती है ,घुटन महसूस करती हुई सी अंदर ही अंदर। उसे बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि ,,अपने परिवार को सवांरने के लिए अपनी इच्छाओं या ज़रूरतों का त्याग कर देना ही उसकी नियति है ताकि परिवार टूटे नहीं और समाज की नज़रों में परिवार की इज़्ज़त बनी रहे। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह सब कुछ उसकी अपनी इच्छाओं को भूल जाने के मूल्य पर होता है।

इसमें कोई दो राय नहीं की आज हम तकनीकी विकास और प्रगति के मामले में बड़े से बड़े विकसित देशों को चुनौती देने की स्थिति में हैं पर इस माहौल में भी इस तथ्य को बड़ी ही संजीदगी से महसूस किया जा सकता है कि आज स्त्री एक प्रोडक्ट के रूप में सिमट कर रह गई और यह अप्रत्यक्ष रूप से शोषण का ही संकेत देता है.आज बाज़ार में कोई भी ऐसा प्रोडक्ट नहीं जो बिना स्त्री के बिक सकता हो ?चाहे वह पुरुषों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शेविंग क्रीम हो या उसकी ज़रूरतों का अन्य सामान। एक बात समझ में नहीं आती कि ऐसे सामानों को बेचने के लिए अर्ध नग्न स्त्रियों की ज़रूरत क्यों पड़ती है ?हालांकि यह भी बहस का मुद्दा हो सकता है कि यह सब कुछ एक स्त्री अपनी मर्ज़ी से करती है या उसे ऐसा करने के लिए विवश किया जाता है।

इन तमाम स्त्री विमर्शों और तत्सम्बन्धी संवादों या परिचर्चाओं के बावजूद कुछ ऐसा है जो यह सन्देश देता है कि इससे परे जो सत्य है उसे हम देख नहीं पा रहे हैं। यकीनन जिस सत्य की प्रासंगिकता है ,उसका वज़ूद है ,उसकी अहमियत है ,और इसका नए सिरे से पुनरावलोकन किया जाना चाहिए। इसका एक दूसरा पक्ष भी है जो स्त्री विमर्श की दहलीज पर दस्तक दे रहा है आज बिना विवाह केपरिवार के रूप में साथ साथ रहना (लिविंग इन रिलेशनशिप )एक तरफ तो समाज की प्रचलित मान्यताओं को चुनौती देता है ,वहीं एक सवाल भी खड़ा करता है कि क्या ऐसे रिश्ते अप्रत्यक्ष रूप से स्त्री का शोषण नहीं कर रहे ?अगर हम अपने आस पास में दिखने वाले ऐसे रिश्तों पर नज़र डालें तो एहसास तो यही होता है कि भले ही यहाँ पुरुष पति नहीं होता पर इसके व्यवहार में दिखने वाला अहम् उसके तथाकथित पुरुषत्व का एहसास करा ही देता है। और शायद यह भी सच है कि ऐसे माहौल में रह कर भी स्त्री, पत्नी का दायित्व निभाती है ,हाँ फर्क सिर्फ रिश्ते पर लगी समाज की मुहर का होता है।

आज के इस बदलते हुए माहौल में समस्य की मांग यही है कि स्त्री विमर्श की खुशबू बिखरती रहे और उसकी सकारात्मकता स्त्री के विकास को नया आयाम देती रहे।  परन्तु इसकी सार्थकता इसी में है कि इसके साथ साथ इस विमर्श से स्त्री को मिलने वाले लाभों पर नज़र रखी जाए ताकि इसकी उपादेयता सिद्ध की जा सके वरना स्त्री विमर्श की चर्चा में रंग भरती स्त्री की वास्तविक स्थिति हमेशा रंगहीन ही रहेगी।

— राजेश कुमार सिन्हा

राजेश सिन्हा

नाम –राजेश कुमार सिन्हा शिक्षा –स्नातकोत्तर (अर्थशास्त्र ) सम्प्रति –एक सरकारी बीमा कंपनी में वरिस्ठ अधिकारी निवास –मुंबई फिल्म और सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में हजार से अधिक रचनाएं प्रकाशित प्रकाशन –सिनेमा के सौ वर्ष पर “अपने अपने चलचित्र “ एक साझा काव्य संकलन –‘कुछ यूँ बोले एहसास’ का संपादन एक काव्य संकलन और “छोटा पर्दा –अतीत के आईने में” –प्रकाशनाधीन भारत सरकार के फिल्म प्रभाग के लिए दो दर्ज़न से अधिक डॉकयुमेंट्री फिल्मो के लिए कमेंट्री लेखन और एक फिल्म “दी ट्राइबल वीमेन आर्टिस्ट “ को नेशनल अवार्ड भी