कुण्डली
काम-धाम सब बंद हैं, विचलित अब मजदूर।
जाना चाहे गाँव वह, हुआ बहुत मजबूर।।
हुआ बहुत मजबूर, दिखे न कोई साधन।
साहब जी, अब नही, हमारे पास बचा धन।।
अगर रहम उर शेष, कीजिए तो इतना अब।
बसें चला दो और, छोड़कर काम-धाम सब।।०१
करता है श्रम रात-दिन, रहकर घर से दूर।
रूखा-सूखा जो मिले, खा लेता मजदूर।।
खा लेता मजदूर, कष्ट सब हँसकर सहता।
चेहरे पर मुस्कान, किन्तु अंतर है दहता ।।
कहता ‘शिव’ सच बात, हृदय में बहुत अखरता।
श्रमिकों का सम्मान, नहीं क्यों कोई करता।०२
— शिवेन्द्र मिश्र ‘शिव’