कविता

स्त्री

स्त्री चाहे घरेलू हो या कामकाजी

रसोई मिलती है उसे

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सडक पर भिडती है

अचानक से दो गाडियां

एक से निकलती है औरत

दूसरे से उतरता है आदमी

भीड से आती है आवाज

उफ ये औरतें क्यों चलाती हैं गाडियां

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देर रात घर लौटे बेटे को

सहानुभूति

और

स्त्री को मिलती है

प्रश्नों से भरी निगाहें

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स्त्री को लडना है भिडना है

टकराकर आगे निकलना है

इसी By Default से

कि जानती है वो

आखिरकार शक्ति का बिम्ब है वो

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और बदलना है उसे ही ये

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डॉ. अपर्णा त्रिपाठी

मैं मोती लाल नेहरू ,नेशनल इंस्टीटयूट आफ टेकनालाजी से कम्प्यूटर साइंस मे शोध कार्य के पश्चात इंजीनियरिंग कालेज में संगणक विज्ञान विभाग में कार्यरत हूँ ।हिन्दी साहित्य पढना और लिखना मेरा शौक है। पिछले कुछ वर्षों में कई संकलनों में रचानायें प्रकाशित हो चुकी हैं, समय समय पर अखबारों में भी प्रकाशन होता रहता है। २०१० से पलाश नाम से ब्लाग लिख रही हूँ प्रकाशित कृतियां : सारांश समय का स्रूजन सागर भार -२, जीवन हस्ताक्षर एवं काव्य सुगन्ध ( सभी साझा संकलन), पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनायें ई.मेल : [email protected] ब्लाग : www.aprnatripathi.blogspot.com