गीतिका
जोर चली पुरवाई है ।
नदिया भी बौराई है ।
स्वप्न कृषक के सूख गये,
बाढ़ खेत में आई है ।
कर्तव्यों ने प्रौढ़ किया ,
बोझ तले तरुणाई है।
पर्वत उतरी सरिता सी,
यौवन की अँगड़ाई है ।
कूप सामने, लौटूँ तो
-पीछे गहरी खाई हैं।
चलो गंजरहा, गाँवों में
-शेष बची मनुसाई है ।
——-डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी