भय नहीं जागरूकता आवश्यक है
गणेश चतुर्थी भारत देश में दस दिनों तक हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला प्रमुख त्यौहार है। हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार भगवान श्री गणेश प्रथम पूजनीय है। यह त्यौहार भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है। इस वर्ष गणेश चतुर्थी का यह उत्सव 22 अगस्त को और विसर्जन 31 अगस्त को है।
गणेश चतुर्थी के त्योहार के लिए कई प्रकार से तैयारियां बहुत पहले से ही शुरु कर दी जाती है। प्रत्येक वर्ष बाजारों में मूर्तियों का बनना कुछ दिनों पहले से ही शुरू हो जाता है। गणेश चतुर्थी के दिन गणेश जी की मूर्ति की स्थापना बड़े ही धूम-धाम, साज – सज्जा और विधि – विधान से की जाती है। गणेश चतुर्थी को मनाने का उद्देश्य घर में सुख – शांति और समृद्धि को लाना है। 10 दिनों तक यह त्यौहार ऐसे ही हर्षोल्लास से चलता रहता है। अंतिम दिन गणेश जी की मूर्ति को बड़े ही धूम – धाम के साथ नदियों और तालाबों में विसर्जित करने की परंपरा चली आ रही है।
परंतु प्रत्येक वर्ष यह त्यौहार हम सभी के लिए एक गंभीर सोचनीय विषय भी लेकर आता है। जिसके बारे में बहुत समय तक विचार नहीं किया गया। शास्त्रों के अनुसार गणेश जी की पूजा के लिए जो मूर्तियां बनाई जाती है वह मिट्टी की बनाई जाती है, जिन्हें ‘पार्थिव’ कहा जाता है। किंतु आधुनिकता के इस दौर में कुछ सालों से यह परंपरा पूरी तरह से बदल गई है। मिट्टी की मूर्तियों के स्थान पर प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) की मूर्तियां बनाई जाने लगी और उन्हें कई हानिकारक रसायनों से सज्जित किया जाने लगा। जब इन मूर्तियों को किसी भी जल स्त्रोत में विसर्जित किया जाता, तब यह पीओपी जल में आसानी से नहीं घूलता बल्कि जल की सतह पर तैरता रहता और इकट्ठा होकर जल स्त्रोतों को ब्लॉक कर देता है, जिससे जल में उपस्थित जीव- जंतुओं के लिए बहुत कठिनाई उत्पन्न हो जाती है। इन मूर्तियों में उपयोग होने वाले रसायन भी कई प्रकार से जलीय जीवो पर हानिकारक दुष्प्रभाव डालते हैं। जिनसे उनकी मृत्यु तक हो जाती है।
इस प्रकार प्रत्येक वर्ष मूर्ति विसर्जन से जल का पारिस्थितिक तंत्र पूरी तरह से बिगड़ जाता है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव हम पर भी पड़ता है, क्योंकि जल ही जीवन है।भारत में एक अनुमान के अनुसार प्रत्येक वर्ष नदियों और तालाबों से 10000 तक की मूर्तियां एकत्रित की गई है।
मूर्तियां बनाने वाले कारीगर मिट्टी की जगह प्लास्टर ऑफ पेरिस का प्रयोग इसीलिए करने लगे क्योंकि पीओपी मिट्टी की अपेक्षा सस्ती, जल्दी ढांचे में ढालने वाली और कम लागत में ज्यादा फायदा देने वाली होती है। जिसका प्रयोग बाजारों में बिना इसके अंजाम के जाने बहुत किया गया। लेकिन वर्तमान का यह कोरोना काल का वर्ष हमारे लिए कुछ अच्छा भी लेकर आया है। प्लास्टर ऑफ पेरिस के प्रयोग पर भारत सरकार द्वारा कुछ समय पहले ही रोक लगाना शुरू कर दिया गया है। लोगों में इसे रोकने के विरुद्ध में जागरूकता फैलाई गई। जिसके चलते इस वर्ष कोरोना काल के दौरान मिट्टी की मूर्तियां ही लोगों ने अपने-अपने घरों में बनाई। जिनका सृजन घरेलू सामग्री से ही किया है। और सबसे महत्वपूर्ण बात लोगों ने इस जागरूकता के चलते मूर्ति निर्माण में इस बार फिटकरी का प्रयोग किया। फिटकरी पानी को शुद्ध करती है। जिसका प्रयोग हम अपने दैनिक जीवन में भी प्रकार से करते हैं. जब हम इस वर्ष इन मूर्तियों का विसर्जन करेंगे तब यह जल के स्रोतों को दूषित ना करके पानी को शुद्ध करेंगी और शुद्ध मिट्टी की मूर्ति बनने के कारण जल में भी आसानी से घूल जाएंगी। जिससे हमारे पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) विशेष रूप से जलीय पारिस्थितिकी तंत्र पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा।
पर्यावरणविदों के अनुसार के अनुसार मिट्टी का उपयोग इसलिए किया जाता है। क्योंकि मिट्टी में शुद्धता का गुण पाया जाता है। जिससे हमारा पर्यावरण प्रदूषित नहीं होता। अर्थात यह इकोफ्रेंडली है।
इसी के साथ मिट्टी से मूर्ति निर्माण आर्थिक रूप से भी सहायक है, क्योंकि इससे मजदूर और गरीब वर्ग को रोजगार मिलता है। वे लोग भी रोजगार के चलते सबके साथ त्यौहार को मना पाते हैं। पीओपी के प्रयोग से मूर्तियां सांचे द्वारा बनाई जाने लगी थी। जिसका अधिकतम नुकसान मजदूर और गरीब वर्ग को हुआ।
एक सत्य यह भी है, कि कोरोना काल की इस संकट की घड़ी में हमारे जल स्त्रोतों में बहुत स्वच्छता दिखाई देने लगी है। सड़कों और पर्यटन स्थलों पर भी स्थलों पर भी पहले जितनी गंदगी नहीं रही। पर्यावरण से प्रदूषण भी कम हुआ है। लेकिन दुख की बात यह है, कि यह सब संभव कोरोना के भय की वजह से हुआ। जबकि हम सबको कोशिश यह करनी है, कि हम सब अपने चारों और के पर्यावरण को किसी भय से नहीं बल्कि अपनी सोच – समझ और जिम्मेदारी से साफ सुथरा और स्वच्छ रखें। तभी हमारी ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा कह लाएगी।
लक्ष्मी सैनी