आख़िर कब तक यूँही
आखिर कब तक यूँ ही कोरोना का दंश सहेंगे?
आखिर कब तक निज गृह में क़ैद रहेंगे।
नीरव हो चुके हैं हॉल, मॉल और विद्यालय,
क्षुब्ध हो गया है मन,और मन का आलय,
आखिर कब तक मास्क के पीछे छुपते रहेंगे?
आखिर कब तक यूँ ही कोरोना का दंश सहेंगे?
कब मित्रमंडली में मौज मस्ती हम मनाएंगे?
कब घनिष्ठ मित्र को हृदय से लगा पाएँगे?
कब तक छँट जाएँगे महामारी के मेघ?
आखिर मन की बात मन से मन कब कहेंगे?
आख़िर कब तक यूँ ही कोरोना का दंश सहेंगे?
त्राहि -त्राहि मची है अब विश्व पटल पर,
मृत्यु अवश्यम्भावी ,जीवन है अटल पर,
बालक पढ़ रहे हैं तकनीकी के माध्यम से घर में,
कब तक ऑनलाइन कक्षा शिक्षण के सहारे रहेंगे?
आखिर कब तक यूँ ही कोरोना का दंश सहेंगे?
— प्रीति चौधरी “मनोरमा”