संजा
गांवों में घरो की दीवारों पर
ममता भरा आँचल का अहसास होता
जब मंडती संजा
दीवारें सज जाती गाँव की
और संजा बन जाती जैसे दुल्हन
प्रकृति के प्रति स्नेह को
दीवारों पर जब बाटती बेटियाँ
संजा के मीठे बोल
भर जाते कानों में मिठास
गांव भी गर्व से बोल उठता
ये है हमारी बेटियाँ
शहर की दीवारों पर
टकटकी लगाएं देखती
संजा के रंग और लोक गीत
ऊँची अट्टालिकाओं में
संजा मानों घूम सी गई
लोक संस्कृति की खुशियाँ क्यूँ
रूठ सी गई
लगता भ्रूण हत्याओं से मानों
सूनी दीवारें भी रोने लगी
संजा न रुला बार- बार
संजा मांडने का दृढ़ निश्चय
लोक संस्कृति को अवश्य बचाएगा
बेटियों को लोक गीत अवश्य सिखाएगा
जब आएगी संजा घर मेरे।