अभी-अभी शहर में लाकडाउन की खबर प्रसारित की जा रही थी, तभी मेरे गांव से फोन आ गया कि माँ की तबियत कुछ ज्यादा खराब होती जा रही हैं. मैंने अभी हाल में ही शहर में नौकरी में योगदान दिया था. मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था.
कोरोना महामारी के कारण सड़क पर गाड़ियों की आवा- जाही न के बराबर हो गई. मैं चिंता में पड़ गया था कि कैसे माँ को इस स्थिति में अस्पताल में भतीं किया जायेगा. वैसे भी इस शहर में पहली बार आया था, कोई जान- पहचान भी नहीं था. इसी उधेड़बुन में था कि फोन फिर से घनघना उठा, मैं घबरा कर फोन उठाया- अरे ! यह तो गाँव के दोस्त राहुल का फोन था ,मुझे बहुत ही ताज्जुब लग रहा था ,क्योंकि उसके साथ मेरी तो बहुत दिनों से बोल-चाल बंद थी. फिर भी मैंने काल रिसीव कर लिया.
मैं फोन पर कुछ बोलता उसके पहले ही राहुल ने बोलना शुरू कर दिया- देखो वैसे तो तुम्हारी माँ की तबियत ठीक है लेकिन उन्हें इलाज की सख्त जरूरत है ,और चाचा जी (यानी मेरे पिताजी) की तबीयत तो तुम जानते ही हो, इसलिए मैं तुम्हारी माँ को लेकर सुबह आ रहा हूँ. मैं बोला- लेकिन इस माहौल में कैसे होगा.. वह बोला- सब हो जायेगा तुम चिंता मत करो. अब मैं ग्लानि से भर गया था .. क्योंकि अभी कुछ दिनों पहले चुनाव के माहौल में कुछ बातों को लेकर विवाद कर बैठा था और गुस्से में उससे दूर हो गया था ,वही शख्स आज मेरी माँ के लिए इतना व्यथित था.
दूसरे दिन वह ऐम्बुलेंस से सुबह- सुबह ही माँ को पटना लेकर आ गया था, फिर हमदोनों एक नसिंग होम में माँ को भर्ती कर दियें. इसके बाद मैं राहुल से बोला- यार मैं तो तुमसे खफा था, यहाँ आकर तुम्हारी कभी कोई खबर भी नहीं ली, फिर भी तुमने मेरे लिए इतना कुछ कर डाला.. तुम्हारे इस अहसान को कभी नहीं भूल पाऊंगा.
इसबार वह बहुत ही शान्त लहजे में बोल पड़ा था- मां तेरी हो, मेरी हो या किसी की हो.. माँ तो आखिर माँ होती हैं.. मेरा जो फर्ज इस समय था, इससे मैं क्यों विमुख होता. मेरी और तुम्हारी लड़ाई जो विचारो की है, उसमें माँ कहाँ आती हैं?…. मैं उसके इन शब्दों के सामने नतमस्तक हो गया था और वह बोले जा रहा था-विचार और सिद्धांत किसी के भी हो उसकी अपनी जगह है, .. माँ हो या मातृभूमि इन दोनों की पहचान ही अलग होती हैं ,कहीं भी कोई सीमा में बंध नहीं है, चंद छोटी- छोटी बातों के लिए इन दोनों के अहमियत को भूलाया थोड़े ही जाता हैं. जब भी अवसर मिले, इन दोनों की सेवा के लिए मैं पिछे हरगिज़ नहीं रह सकता….और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर उसे देखता रह गया था..।
— संजय श्रीवास्तव