मैं आज कालेज के दीक्षांत समारोह में गोल्डमैडल प्राप्त कर खुशी-खुशी घर लौट रहा था और रास्ते में सोचते आ रहा था कि बाबूजी, भैया-भाभी और छोटी मेरी बहन सबलोग कितना प्रसन्न होंगे। पिताजी के सेवानिवृत्त हुए आठ साल हो गये थे और घर के सभी खर्च भैया के वेतन से ही चल रहा था, भैया अकेले ही हमसबों की जरुरतों को निसंकोच ही पूरा किये जा रहे थे, और भाभी भी हमलोगो की सेवा में कभी कोताही नहीं बरतती थी.
जब मैं मोटरसाइकिल गेट के पास लगाकर घर के अंदर प्रवेश करने लगा था तो चिड़ियों की चहचहाहट से सारा आंगन गुंज रहा था… दूर खड़ी भाभी को मैं बोला- भाभी लगता हैं कि मेरी सफलता का पता इन परिंदो को भी चल गया है… देखो न कैसे चहचहा रहे हैं,तो भाभी धीरे से मुस्कुरा कर बोली-नहीं देवरजी! ऐसी कोई बात नहीं हैं,सुनिये…. चिड़िया जो बैठी है, वह अपने छोटे बच्चों को जो बड़े हो गयें हैं- उन्हें जिविकोपार्जन करना सिखा रही हैं, और अपने सिमटे दायरे से निकलने को प्रेरित कर रही हैं.
… और मैं भाभी के इस कथन को एक संकेत…. मुझे सबकुछ अब अकस्मात ही समझ में आने लगा था कि डिग्रियों से परे भी कुछ होता है…और मुझे अहसास हो रहा था कि दायरे…. को बढाने का मतलब भी साफ था..कि…
— संजय श्रीवास्तव