वक्ता, श्रोता च दुर्लभ:
मुझे याद है। मैं एक बड़े नेता की काबिलियत का फैन था। उनको अति विद्वान, लेखक, चिंतक माना जाता था। हालांकि मुझे उनको सुनने का बस 3- 4 बार ही मौका मिला। जहां मैं उनके ज्ञान भंडार पर गदगद होता था वहीं मैंने देखा वो बोलते वही थे जो उनको बोलना था। विषय कुछ भी हो। मैं समझ नहीं पाता था कि फिर विषय रखने का लाभ क्या?
यह मात्र एक उदाहरण है। अक्सर ऐसा होता देखा जाता है। साधारण लोगों के अलावा विद्वान लोग भी इसके शिकार हो जाते हैं। ये अलग बात है कि उनकी विद्वता, धारा प्रवाह भाषण शैली, शेरो शायरी आदि के कारण उनको अच्छी तालियां मिलती है। फिर चेले चापट भी होते ही हैं कहने वाले – वाह, वाह क्या भाषण था। ऐसे में मूल विषय बेचारा दब कर रह जाता है। मसलन विषय यदि भारत के वर्तमान अर्थ तंत्र पर हो और विद्वान वक्ता हमारी संस्कृति की महानता को श्लोक और उद्धरणों के साथ व्याख्या करे तो हमारे जैसे भावुक थोड़ी देर के लिए मस्त तो हो जाएंगे लेकिन बाद में लगेगा कि इसमें विषय कहां था।
ठीक से तो याद नहीं लेकिन शायद माननीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी ने अच्छे वक्ता के गुणों पर एक पुस्तक लिखी थी। माननीय रज्जू भैया को मैंने विषय और वक्ता के समय पालन पर कहते सुना है।
अच्छे वक्तृत्व के लिए वक्ता का श्रोता से तादात्म्य बहुत महत्वपूर्ण होता है। श्रोता किस श्रेणी के हैं, आम सभा है या चुने हुए श्रेणी के लोग, उनकी सुनने की क्षमता कितनी है ये जहां ध्यान से हटा वहीं श्रोता से तादात्म्य टूटा। फिर भाषा, शैली, प्रवाह, तर्क आदि वर्ग और स्थान के अनुसार अलग अलग होंगे। मसलन जहां आम लोगों याने पब्लिक मीटिंग में शेरो शायरी वाह वाही लूट सकती है वहीं किसी छोटे या क्लास ग्रुप में शायरी बोरिंग उबाऊ विषय से भटकाने वाली हो सकती है।
अच्छे वक्ता को चाहिए कि अपने विषय को समय , स्थान , श्रोताओं के वर्ग के अनुसार ठीक से प्लान करे। मुख्य बिंदुओं पर विषय को केन्द्रित रखे और समाप्त करते हुए अपने इच्छित बिंदु पर इस प्रकार फोकस करें कि श्रोताओं के मन में मुख्य बिंदु बैठ जाए। इस दृष्टि से यदि सीख लेनी हो तो संघ के पूज्य सरंघचालक डॉ मोहन भागवत जी के उद्बोधन को ध्यान से सुनना चाहिए।
कई बार लोग कहते मिल जाएंगे कि फलां फलां का भाषण बहुत अच्छा था, बहुत जोशीला था, ताली पीटी — आदि, आदि —
लेकिन पलट कर यदि पूछ लें कि क्या बोला — तो उत्तर मिलेगा- पता नहीं, याद नहीं — ऐसा न हो ये हमारे साथ हो। यदि हम अच्छे वक्ता बनना चाहते हैं। बाकी आपकी मर्जी।
— गोविन्द राम अग्रवाल