ढाक के तीन पात
कोशिशें बहुत करीं पर ,कुंभकरण जागे नही ।
अंत में परिणाम आया ,ढाक के बस तीन पात।
देकर के आसरा हर बार वो टरकाते रहे ।
तब भी हम ऊसर में बीज नित बहाते रहे।
भैंसो के आगे हम बीन भी बजाते रहे ।
बहरों के आगे हम मेघ राग गाते रहे ।
फिर हमने जाना बाँझ ,जाने क्या प्रसव की बात।
अंत में परिणाम आया………………………।
कुर्सियों कें खटमल,मोह खून का न छोड़ सके।
पीड़ा के व्यूह का एक द्वार भी न तोड़ सके।
अंहकार पद का था ,रास्ते भी भटक गये ,
मोड़ने चले थे धार,नाली तक न मोड़ सके ।
बुझा के मशाल बने चोर, देख काली रात ।
अंत में परिणाम आया…………………….।
अपनी तो पीर हुई, गैर की तमाशा है ।
शासन तिमिर का है ,दीप को निराशा है।
गिद्धों के अनुगामी, तंत्र में विराजमान,
लाशों की टोह करें, इस तरह पिपासा है ।
उल्लुओं ने राय रक्खी ,रोकों भावी प्रभात !
अंत में परिणाम…………………………
© .डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी ,गोरखपुर