राष्ट्रभाषा पर बहस चले!
नमस्कार! प्रणाम! हम भूल चले,
हैलो! हाय! बाय! हम बोल चले।
चरण स्पर्श! भूल चले,
आलिंगन को हाथ बढ़े।
संस्कृति को भूल चूकें,
विकृति को बढ़ चले।
पौराणिकता को भूल चले,
आधुनिकता को हाथ बढ़े।
अपव्यय पर हाथ रूके,
मितव्यय पर हाथ बढ़े।
कृत्रिमता को भूल चले,
अकृत्रिमता को बढ़ चले।
सुप्रीमकोर्ट में बहस बेमानी है,
न्याय की चौखट पर,
राष्ट्रभाषा हारी है,
मंजिल अभी बाकी है।
सितम्बर में हिन्दी दिवस मने,
हिन्दी पखवाड़ा विसर्जन बने।
राष्ट्रभाषा पर बहस चले,
हिन्दी पर राजनीति जारी है।
— बरुण कुमार सिंह