आखिर दोषी कौन?
प्रोफेसर साहब का सुबह से ही मूड कुछ उखड़ा हुआ था, यों तो प्रोफेसर साहब सौम्य और मृदुल स्वभाव के थे, लेकिन लाकडाउन के माहौल ने उनकों भी जड़ तक हिला दिया था. लाकडाउन खत्म होते ही आज कालेज में उन्हें बुलाया गया था,बहुत देर पहले से उनका नौकर को कुछ जरुरत का समान लाने गया था .. और विलंब होने के कारण वे तमतमाये हुए बोले जा रहे थे-हर जगह, हर चीज में लोग सिफारिश ही खोजते है, कोई भी कही भी कुछ भी लेना हो क्यू में खड़ा रहिये.कोई छोटा सा काम हो सुबह से शाम तक परेशान रहिये. क्या जमाना आ गया हैं? बिना पैरवी और धौंस के कोई भी कुछ सुनने वाला नहीं हैं! जनता, नेता सब सिर्फ पैरवी की बात करते रहते हैं, सामने बैठे आंगुन्तक से बोले-क्या मैं गलत कह रहा हूँ. वह व्यक्ति तपाक से बोल पड़ा था-नहीं सर आप बिलकुल सही बोल रहे हैं.. इस देश में कोई भी काम बिना पैरवी के नहीं होता हैं,ये नेता, अफसर सब भ्रष्ट हो गये कोई भी ईमानदारी से अपने काम को अंजाम देना नहीं चाहता हैं..इसी से तो देश रसातल में जा रहा है….
तभी प्रोफेसर साहब का नौकर समान लेकर आ गया था और वे कुछ शान्त नजर आने लगे और उस आंगुन्तक की तरफ मुखातिब होकर बोले- माफ करे.. भाई साहब मैं ने आपका परिचय नहीं जान पाया था? उस व्यक्ति ने एक कागज का टुकड़ा उनकी तरफ बढ़ा दिया और वे कागज पर लिखे शब्दों को गौर से पढ़ने लगे थे, यह खत एक बड़े नेताजी के हाथों से उनके लिए ही लिखा गया था.. ये मेरे गांव के रिश्तेदार हैं और राजनीतिक दल के सक्रिय सदस्य भी हैं. इनके काम को मेरा ही काम समझेंगे और यथाशीघ्र करा देंगे….
प्रोफेसर सहाब भौंचक्के होकर सोच रहे थे कि आखिर इस स्थिति के दोषी कौन हैं?