ये सोने के हिरण
बनाकर वेश साधू का कई रावण निकलते हैं ,
ये सोने के हिरण सीता को त्रेता युग से छलते हैं ।
नही चाहत रही अब धर्म के ग्रंथों को पढ़ने की
सुना है होम करने से भी अपने हाथ जलते हैं ।
गले मिलते हुए देखा है उनको ख़ूब उल्फ़त से ,
मगर मौक़ा मिले तो पीठ पे ख़ंजर वो रखते हैं ।
चलो चलकर उन्हीं से सीख लें कुछ काम की बातें ,
हज़ारों रंग जो इक पल में देखो ख़ुद बदलते हैं।
किसे सच मान लूँ नीलम नही कोई खरा -खोटा ,
नयी टकसाल है सिक्के नये भी रोज़ ढलते हैं ।
डा० नीलिमा मिश्रा