लघुकथा

लघुकथा – अपनी भाषा

किशोर से रामु हरिया के बारे में कहते हुए बोला, “अरे किशोर, वह हरिया पता है”? “कौन सरपंच का लड़का” हामी भरते हुए रामु बोला “शहर से पढ़-लिखकर लौट के आया”। मैंने पूछा “कैसे हो हरिया? वह मुझसे कुछ अंग्रेजी में गिटर-पीटर करने लगा। किशोर ने जवाब देते हुए कहा “देख भाई रामु, हम लोग ठहरे गाँव के गवाँर और वह शहर का पढ़ा-लिखा आदमी। इतने दिनों बाद अपने गाँव आया तो वह अपनों से अपनी भाषा में बात करना ही भूल गया”।
रामु बोला “अंग्रेजी तो परायो की भाषा है। उसका हम से क्या लेना-देना? उसे समझना चाहिए की परायो की भाषा में परायो से बात करें, हम तो उसके अपने हैं। क्या शहर के विद्यालय में पढ़ने से हम अपनी भाषा भूल जाते हैं? पता नहीं क्यों हम अपनी ही भाषा का तिरस्कार करने लगते हैं। मैं मानता हूँ की अंग्रेजी बहुत जरुरी है, लेकिन इतनी भी जरुरी नहीं की उसके लिए हम अपनी ही भाषा का तिरस्कार कर दें”। रामु के यह शब्द सुनके किशोर गहरी सोच में चला गया। किशोर यह बात जब हरिया को समझाता है, तो हरिया को अपनी भूल समझ में आती है। वह अपनी भाषा पर गर्व करने लगता है।
— अंकुशा बुलकुंडे  

अंकुशा बुलकुंडे

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