कविता

निशा घनघोर अनजाना ठौर

 मैं नादान थी, कुछ परेशान थी,
मन के भावों को तुमको ही अर्पित किया।
चांदनी रात में, तेज बरसात में,
मेंने खुद को तुम्हें ही समर्पित किया।।
रेत का घर था, गिरने का डर था,
बारिस का कहर बढता ही गया।
बादलों की कडक, बिजली की चमक,
 मेघों का तांडव चढता ही गया।।
टूटा खाट था, बिस्तर टाट था,
बूदें बारिस की घर में भी आने लगी।
हवा के जोर से,मेघ के शोर से,
बेबसी मेरे  मन को डराने लगी ।।
साथ तुमने दिया, वादा पूरा किया,
जब काल सामने आकर डराने लगा।
मौसम उग्र था, प्रभू का शुक्र था,
जोर बारिस का अब कम होने लगा।।
मेघ  छंट  गया, अधियारा  हट  गया,
मन सपने नये अब सजोने लगा ।
चांद दिखने लगा, तारे उगने लगे,
रात में भी उजाला थोडा होने लगा ।।
मन में होके,विकल, घर से बाहर निकल,
तेरे  चेहरे  पर मेरी नजर पड गयी ।
जानी पहचानी सूरत,शराफत की मूरत,
तेरे  चौखट पर  मेरी वपु  पड गयी ।।
घर जाने की आस में,आई तेरे पास में,
अब  मेरे  मन  का  डर खो  गया ।
इसी उधेड़बुन में,हममें तुममें,
रात बीत गई और प्रभात हो गया।।
अनरथ होने को था,मन रोने को था,
मैं थी धन पर्वत तूं राई जो था।
मन में अवसाद था,संग प्रभू प्रसाद था,
बच गया आज जीवन कमाई जो था।।
— महेन्द्र सिंह “राज”

महेन्द्र सिंह "राज"

मैढीं चन्दौली उ. प्र. M-9986058503