यूँ शहर – गाँव के किस्सो में,
बट गए हैं, हम दो हिस्सो में।
रात चांद और घना अन्धेरा,
मिलते खुद ही से किश्तो में।
नगर-नगर एक हवा चली हैं,
ढूंढे “यादे” को “किस्सो” में।
कैद सारे जज्बात ऐसे,
जैसे “जाने” हो “जिस्मो” में।
वो गीत गजलें हो चली हैं पुरानी,
डूबे चले युवा डिस्को में ।
नौका , पनघट, और गुमटीया चाय की,
दौर वो जुदा था हर किस्मो में।
यूँ शहर गाँव के किस्सो में बट गए हम दो हिस्सो में।।
— फातेमा