सामाजिक

चीमन का बाजार दर्शन

बाजार के दर्शन की इच्छा उसी को रखनी चाहिए जिसके पास क्रय शक्ति और आवश्यकता में तालमेल बनाए रखने का सामर्थ्य हो वरना बाजार में अर्थशास्त्र का शैतान चमक-दमक के साथ विराजमान है जो आपको लूटना चाहता है। बाजार का दर्शन करने और अर्थशास्त्र रूपी मायावीशास्त्र से लड़ने में सक्षम है ‘चीमनलाल जी ‘

ये है चीमनलाल भार्गव। रघुनाथगढ़ में 1975 से यानी 45 वर्षों से गाँँव में सब्जी की पूर्ति कर रहे हैं। इन्होंने अर्थशास्त्र कि माँग-पूर्ति का सिद्धांत नहीं पढ़ा न ही कीमत निर्धारण में साम्य की अवस्था के बारे में पता। हाँ ! रोज कितनी सब्जी खरीदते है गाँव वाले,इसकी पूरी जानकारी है। 4 बजे उठकर स्नान-ध्यान,पूजा-पाठ करके उदयपुरवाटी सब्जी मंडी पहुँच जाते है। 9 बजे ताजा सब्जी गाँव कई सेवा में हाजिर। सब्जी से घर-परिवार का गुजारा करते आ रहे है। खुद की दुकान है नहीं, एक सेठ की बनाई धार्मिक प्याऊ है गाँव के मुख्य चौक में। बड़ की छांव तले बोरी-टाट की छत डाल कर गुजारा करते-करते इतने वर्ष बीत गए परन्तु लोग इनकी सुध नहीं लेते। हाँ इन्हें हर किसी की भूख का अहसास है।
घर में 16 सदस्य है। सामाजिक पारिवारिक जिम्मेदारी भी बखूबी निभाते है। व्यवहार कुशल और उदारवृत्ति के हैं। प्रेम से हर कोई ‘चीमन काका’ कहता है और बड़े मिजाज वाले व्यंग्य से ‘चीमन सेठ’ कहते हैं। सबका हँसकर स्वागत करते हैं।
 अर्थशास्त्र भले ही न पढ़े पर अर्थशास्त्र चुपचाप इनके पास अपने सिद्धांत की खोज करने आ ही जाता है। उत्पादन में आई लागतें, स्थिर लागतें, उत्पादन बढ़ने पर परिवर्तनशील लागत में कमी का आना इन सब के बारे में नहीं जानते पर प्रयोग नित्य करते हैं। ऋतु के अनुसार मांग में परिवर्तन आ जाता है कभी मांग बढ़ती हैं तो कभी कम हो जाती है। वर्षा काल में जब खेतों में ग्वार की फली,मोठ फली, काचरा-मतीरा यह चालू हो जाते हैं तो मांग में कमी आती है। सब्जी की आवक मंडी में कम हो जाती है इसलिए उपलब्ध सब्जियों के मूल्य बढ़ जाते है।
 कभी-कभी अर्थशास्त्र से ये उलझ बैठते है। ग्राहकों का मनोविज्ञान भी खूब समझते है। ज्यादा लाभ कमाने के लिए भाव न बढ़ाकर ज्यादा बेचने के चक्कर में भाव कम रखते हैं। ग्राहक तो देवता है! देवता सब कुछ समझते है!
 चीमन जी  सोचते हैं वस्तु सस्ती होगी तो ज्यादा बिकेगी लाभ उतना ही होगा जितना भाव बढ़ा कर कम वस्तु बेचने से ताकि लाभ भी मिले गरीब का पेट भी पल जाये। यहीं से अर्थशास्त्र का छल-कपट शुरू हो जाता है। अर्थशास्त्र का मांग-पूर्ति का सिद्धांत चीमनलाल जी पर तो लागू हो जाता है पर बाजार के दो मुख्य किरदार जो बाजार को बाजार बनाते हैं वह क्रेता और विक्रेता। इसमें क्रेता को चीमनलाल जी का अर्थशास्त्र समझ में नहीं आता। ग्राहक तो भगवान है और भगवान को क्या चाहिए ‘श्रद्धा-भक्ति’
चीमन जी सोचते है जो एक पाव वस्तु लेता है वो आज एक किलो लेगा और जो एक किलो लेता है वो दो-अढाई किलो लेगा। पर होता विपरीत है। जो ग्राहक पाव लेता था वो आज भी पाव लेता है और किलो लेने वाला आता ही नहीं या एक-आध किलो पर पूर्णविराम लग जाता है। बाजार आशंकाओं से घिरा होता है क्योंकि उपभोक्ता का मनोविज्ञान मनोविज्ञान की समझ के बाहर रहता है।औसत परिणाम भ्रम की अवस्था में रहते है। प्रतिस्पर्धा और एकाधिकार भी उपभोक्ता के मनोविज्ञान को कई बार भांप नही पाते।
नोट का आकार तो नोटबंदी के बाद आये नये नोटों से छोटा हुआ है। पर साहब यहाँ तो थैले का आकार बहुत पहले छोटा हो गया। लगता है भारत सरकार यहाँँ के थैले के छोटे होते आकार को देखकर ही नोटों का आकार छोटा किया। नोट का आकार भले ही छोटा हो क्रयशक्ति तो वही है। पर थैले में कम वस्तु आने लगी। बड़े थैले में पाव वस्तु! कितनी शर्म की बात है! थैला छोटा हुआ पूरा भर गया। अब शान से  कहो थैला भर-भर सब्जी लाते है।
जैसे-जैसे थैला छोटा हुआ चीमन जी हृदय विशाल होता गया। सब्जी में कभी बेईमानी नहीं की। सब्जी हमेशा 100-50 ग्राम ज्यादा ही तौलते है। घी तौलने वाले से आप यह अपेक्षा नहीं रखते कि वह घी ज्यादा तौल देगा। परंतु घी तौलने वाला हमेशा आशस्वत रहता है हमें सब्जी तौल में ज्यादा ही मिलेगी। उधार में सब्जी हर कोई ले सकता है पर हर कोई उधारी चुकाने में जल्दबाजी नहीं करता।
सबको लगता है ठंडी छाँँव तले कितना आराम से रहता है पर ठंडी ऐसे ही थोड़ी मिलती है। गाँँव की सरकार के मुखिया तो तानाशाह से कम नहीं होते। इनकी दुकान छुड़ाने को सेठ बुलाया। सेठ दूसरे राज्य में रहता था। ग्रामवासी एकत्र हुए हंगामा हुआ। चीमनलाल जी अपने सद् व्यवहार और स्वच्छ आचरण से सेठ को प्रसन्न किया। तानाशाह के विरोध को दरकिनार सेठ ने आजीवन दुकान चलाने का आशीर्वाद दिया।
 देश की अर्थव्यवस्था में निचले स्तर के व्यापारी चीमनलाल। कितनी परेशानियों से रोज दो-चार हाथ करते है। सरकार कहाँँ सुध लेती है। न जाने कितने चिमनलाल देश में। जो गुजारा करते है, गुजारा होता नहीं। असली अर्थशास्त्र यहीं से शुरू होता है। अर्थव्यवस्था की पहली सीढ़ी है चिमनलाल। अर्थव्यवस्था का तानाशाह अर्थ(रूपया) आँँख दिखाता इनको। बेचारे चीमन जी अर्थशास्त्र तो नहीं जानते पर तानाशाह अर्थ को लाचार तब बना देते हैं जब अर्थ महत्व न देकर कर्म-धर्म पर स्थिर होकर अपने उदार चरित्र से समरसता का रस घोलते जाते है। न्याय देवता शनिदेव के आश्रय में जीवन बीत रहा है।
 अर्थशास्त्र के मायावीशास्त्र की आँँखें तब चुँँधिया जाती है जब चीमनलाल जी मंडी में लेन-देन करते हैं।उधार-नगद का मिश्रित व्यवहार 45 वर्षों से चल रहा है पर विवाद नहीं हुआ।
खाने-पीने पर खर्च करने से कर्ज नहीं होता। कर्ज तो बीमारी, विलासिता पर खर्च, बुरी आदतें इनसे होता है। सादा लिबास में रहने, खुलकर धड़ाके से बोलने वाले चीमनलाल जी से अर्थशास्त्र का भूत भाग जाता है। बाजार की व्यवस्था में चीमनलाल जी की अहम भूमिका है। अर्थव्यवस्था को चीमनलाल जी की जरूरत है न कि भगौड़ो की। सरकारी सुविधा, अनुदान, सहायता चीमनलाल जी के घर के दरवाजे स्वयं आकर खटखटाये तब तो निचले स्तर के व्यापार  से अर्थव्यवस्था मजबूत हो। वरना सब चौपट ही चौपट। क्यों सरकारी अफसरशाही के चक्रव्यूह में फसेंगे,अगली दाल को पानी नहीं ! घर का गुजारा ही मुश्किल है। सरकारी सुविधाओं अनुदान का लाभ उन्हीं को मिलता है जिनका राष्ट्रीय उत्पादन में कोई योगदान नहीं।  सरकार इन्हें आकर संभाले। वरना कितने ही चीमनलाल अर्थशास्त्र में गड़ते चले जाएंगे अर्थव्यवस्था चौपट होती रहेगी।

ज्ञानीचोर

शोधार्थी व कवि साहित्यकार मु.पो. रघुनाथगढ़, जिला सीकर,राजस्थान मो.9001321438 ईमेल- [email protected]