कविता

शमशान घाट

मैं होकर निराश
एक दिन पहुँच गया
जिंदा ही शमशान घाट
मैंने देखा –
मुर्दे को जलते चिता पर
चिता से निकलते धुँए को
एक मानवीय देह को
धीरे-धीरे राख में परिवर्तित होते हुए…

जाति भेद, ऊँच नीच
छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब
पद-प्रतिष्ठा सब कुछ खत्म
वाकी बची एक मुट्ठी राख
वो भी उढ़ गई एक हवा के झोके से …

मेरा माथा ठनका
मैं क्यों जी रहा हूँ
निराशा की गठरी सर पर रखकर
जब जीवन का सत्य
एक मुट्ठी राख है तो,
क्यों करता फिरूँ
खोटे करम
मिट गया मेरे मन का भरम
मैं करूँ अब जतन
आदमी से इंसान बनने का…

— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

नाम - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा एम.ए., आई.डी.जी. बाॅम्बे सहित अन्य 5 प्रमाणपत्रीय कोर्स पत्रकारिता- आर्यावर्त केसरी, एकलव्य मानव संदेश सदस्य- मीडिया फोरम आॅफ इंडिया सहित 4 अन्य सामाजिक संगठनों में सदस्य अभिनय- कई क्षेत्रीय फिल्मों व अलबमों में प्रकाशन- दो लघु काव्य पुस्तिकायें व देशभर में हजारों रचनायें प्रकाशित मुख्य आजीविका- कृषि, मजदूरी, कम्यूनिकेशन शाॅप पता- गाँव रिहावली, फतेहाबाद, आगरा-283111