कविता

विरहिणी की व्यथा

दिल तमन्ना लिए बैठा है की वो आएगा फिर से मेरी जिंदगी में एक प्यारी सुबह लाएगा।

पर घबराता है दिल कहीं सपना टूट ना जाए।
  जो परदेस गया है वह परदेसी ना हो जाए।
 वह क्या जाने कि सावन की तरंगे किस कदर जलाती है।
   वह क्या जाने की कोयल की कूक कितना रुलाती है।
      वह क्या जाने की पनघट पर बेचैनी छा गई।
               घड़ा जब डुबोया तो पिया की याद आ गई।
        यह वादियां यह खलिहान सब वीरान लगते हैं।
        धीमे से चली ठंडी हवा के झोंके भी तूफान लगते हैं।
     अब तो आजा साजन  राह और देख नहीं सकती।
          और ज्यादा विरह की आग में जल नहीं सकती।
बिन पानी के मीन रह नहीं सकती
बिना पतवार के नाव चल नहीं सकती।
सावन के झूलों से दिल हिलोरे खा रहा है
      गमों का समन्दर दिल मे समा रहा है।
उम्मीद कहीं टूट न जाये सोच के दिल सहम उठता है
ये खौपनाक मंजर मुझको डरा रहा है।
 उन्मुक्त गगन मे उडते पँक्षी और शीतल पवन मुझको रुला रही है।
बेजान सी हो गई ह ये ज़िन्दगी तुम बिन
      मानो धीरे धीरे धीरे तन से जान जा रही है।
चूड़ी कंगन रूठ गये हैं बिन्दिया हुई विरहणी।
छोड दिया  श्रँगार न मेंनें कान मे बाली पहनी।
पागल सी हो गई हूँ इस वीरान दुनिया में
       अब और इस ज्वाला में जल नही सकती।
विरहणी का  विरह अब घातक हो गया ।
साजन अब मेरे जीवन की यह डोर चल नहीं सकती।
— संजय सिंह मीणा

संजय सिंह मीणा

गांव -फकीरपुरा जिला- करौली (राजस्थान)