धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

परमात्मा ने यह चित्र-विचित्र संसार किसके लिए बनाया है?

ओ३म्

हम मनुष्य हैं। परमात्मा ने हमें जन्म दिया है और हमें संसार का ज्ञान कराने के लिये पांच ज्ञान इन्द्रियां भी दी हैं जिनमें से एक नेत्र इन्द्रिय है। नेत्र से हम इस संसार को देखते हैं। यह संसार अनेक प्रकार के चित्र-विचित्रों से युक्त है। ऐसे ऐसे भव्य एवं सुन्दर चित्र संसार में हैं जिसे देखकर मनुष्य का मन मुग्ध हो जाता है और परमात्मा की सामर्थ्य को अनुभव कर उसके स्वरूप के चिन्तन में खो जाता है। यदि परमात्मा इस संसार को बनाता तो हम हमारे समान अनन्त संख्या में जीव ईश्वर की इस अद्भुद सामर्थ्य को जान पाते। परमात्मा ने अपनी अनन्त सामर्थ्य एवं सर्वशक्तिमान होने के कारण इस इस विशाल सीमातीत ब्रह्माण्ड को बनाया है। इस ब्रह्माण्ड का न कोई ओर है न छोर। वैज्ञानिक भी इस संसार की रचना को देखकर विस्मिृत वा आश्चार्यान्वित होते हैं। भक्त हृदय के मनुष्य ईश्वर की इस महान सामथ्र्य को देखकर उसके प्रति भक्ति में भर जाते हैं और स्तुति तथा प्रार्थना वचनों से उसके यश एवं कीर्ति के गीत गाते हैं। परमात्मा की इस अद्भुत विचित्र रचना को देखकर सभी मुग्ध होकर कुछ इस प्रकार से अपने विचार व्यक्त करते हैं तेरा पार किसी ने भी पाया नहीं, दृष्टि किसी की भी आया नहीं, तेरा पार किसी ने भी पाया नहीं।’

परमात्मा यदि इस सृष्टि की रचना करता और जीवों को मनुष्य आदि भिन्न भिन्न योनियों में उनके पूर्वजन्मों के कर्मानुसार जन्म देता तो जीवों को ईश्वर के सत्यस्वरूप उसकी सामथ्र्य का ज्ञान ही होता है। अपने स्वरूप का ज्ञान कराने के लिये परमात्मा ने चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान भी सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को दिया था। वेदों से ही ईश्वर जीवात्मा के सत्यस्वरूप सहित इस सृष्टि इसके अनादि उपादान कारण प्रकृति को जाना जाता है। हमारी यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है अर्थात् यह हमेशा से है। कभी इसका आरम्भ नहीं हुआ। अनादि काल से सृष्टि के अनादि उपादान कारण प्रकृति से परमात्मा इस सृष्टि की रचना करते हैं और इसे रचना कर इसका पालन तथा प्रलय करते आ रहे हैं। यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक इसी प्रकार चलता रहेगा। इस रहस्य को जो मनुष्य जान लेता है वह ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना को अपना कर्तव्य जानकर अन्य कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए ईश्वर के ध्यान, चिन्तन व उपासना आदि में ही अपना जीवन व्यतीत कर दुःखों की निवृत्ति व आनन्दमय मोक्ष को प्राप्त करता है। प्राचीन काल से हमारे देश में वेदों के ज्ञानी, पवित्र बुद्धि के धनी, ईश्वर का साक्षात्कार करने वाले ऋषि, मुनि व योगी देश व जनता की नाना प्रकार से सेवा करते हुए ईश्वर के प्रति उसकी उपासना आदि के अपने कर्तव्यों का निरन्तर सेवन करते आ रहे हैं। ईश्वर के ज्ञान वेदों का अध्ययन कर ही मनुष्य अविद्या से मुक्त होता है अन्यथा वह अविद्या में फंसकर परमात्मा से प्राप्त अपने मानव जीवन को व्यर्थ कर देता है जिसका परिणाम उसे जन्म जन्मान्तरों में दुःख भोगकर चुकाना पड़ता है।

परमात्मा ने यह संसार क्यों किसके लिये बनाया है? यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से मनुष्य के मन में उत्पन्न हो सकता है? इसका उत्तर भी वेद एवं वैदिक साहित्य के प्रणेता ऋषि अपने ज्ञान विवेक के आधार पर देते हैं। वह बताते हैं कि संसार में तीन सत्ताओं यथा ईश्वर, जीव प्रकृति का अस्तित्व है। यह तीनों पदार्थ सत्तायें अनादि नित्य हैं। इनकी उत्पत्ति रचना कभी किसी से नहीं हुई है। यह तीनों स्वयंभू सत्तायें हैं। इन सत्ताओं का रचयिता कोई नहीं है। यह तीनों अनादि होने के साथ अमर व अविनाशी भी है। इसी कारण हम जीवों का अनादि काल से अस्तित्व है और अनन्त काल तक रहेगा। जैसे इस जन्म में हमारी आत्मा को कर्म करने व उनके फल भोगने के लिये मानव शरीर मिला है उसी प्रकार से सभी अनन्त जीवों को उनके कर्मानुसार अन्य मानवेतर पशु व पक्षी आदि के देह परमात्मा से उनके प्रत्येक जन्म में मृत्यु होने के बाद मिलते हैं। मनुष्यों को परमात्मा ने दो हाथ कर्म करने के लिये दिये हैं। इसके साथ ही उसके पास ज्ञानार्जन में समर्थ बुद्धि भी सुलभ है। इससे सोच विचार कर सत्यासत्य की परीक्षा कर वह मनुष्य के करने योग्य कर्मों का निर्धारण कर उनको करके उनके फलों को प्राप्त होता है। मनुष्य की सहायता के लिये ही परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों का ज्ञान दिया था। आज भी यह ज्ञान प्रासंगिक एवं सार्थक है। वर्तमान में भी वेदों से हमें ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्यस्वरूप व गुण, कर्म व स्वभावों का ज्ञान प्राप्त होता है। मनुष्य के अपने तथा अन्यों के प्रति क्या कर्तव्य हैं, इसका ज्ञान भी वेद व वेदों के व्याख्याकार सरल शब्दों में कराते हैं। ऋषि दयानन्द ने मनुष्यों की इसी आवश्यकता को समझ कर अपने दयालु स्वभाव से मनुष्यों पर दया करके उन्हें वेदों की समस्त शिक्षाओं से परिचित कराने के लिये सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की और वह समस्त ज्ञान हमें प्रदान कराया है जो उनके समय में जनसामान्य व विद्वानों को भी उपलब्ध नहीं होता था। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य की प्रायः सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है। यदि कोई शंका रहती भी है तो उसका ज्ञान मनुष्य सत्यार्थप्रकाश सहित उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति आदि वैदिक साहित्य के विविध ग्रन्थों का अध्ययन व मनन कर प्राप्त कर सकता है। वैदिक ज्ञान मनुष्य की सबसे बड़ी सम्पत्ति व पूंजी है। धन सम्पत्ति से मनुष्य केवल शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है परन्तु ज्ञान से आत्मा की भूख की तृप्ति होकर आनन्द की प्राप्ति होती है। इस दृष्टि से मनुष्य के लिए धन सम्पत्ति की तुलना में ज्ञान का महत्व अधिक है। यही कारण था कि हमारे प्राचीन पूर्वज ऋषि महर्षि त्याग एषणाओं से मुक्त जीवन व्यतीत करते थे और अपना समय अपने कर्तव्यों के पालन, परोपकार के कार्यों सहित ईश्वर के अध्ययन, चर्चा, चिन्तन, मनन, उपासना यज्ञ आदि कर्मों को करने में किया करते हैं। वैदिक जीवन ही मनुष्य के लिए सर्वाधिक श्रेयस्कर एवं आचरणीय है।

परमात्मा का बनाया हुआ यह संसार नेत्र दृष्टि से देखने में आता है। यह सुन्दरता से युक्त एवं दैवीय गुणों से युक्त है। परमात्मा का बनाया सूर्य हमें प्रकाश, गर्मी देता है। सूर्य के प्रकाश के कारण ही हम इस संसार को देखने में समर्थ होते हैं। परमात्मा की बनाई वायु हमारे जीवन की श्वांस प्रणाली को संचालित कर रक्षा करती है। हम संसार में जो भोजन पकाते हैं उसमें भी अग्नि की आवश्यकता होती है। इसे भी परमात्मा ने सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति से ही रचा है। यह अग्नि भी सभी मनुष्यों प्राणियों के लिये अत्यन्त हितकर है। अग्नि में प्रकाश का दिव्य गुण होता है। किसान द्वारा उत्पन्न अन्न भी सूर्य के प्रकाश व ताप से ही पकते हैं। वेदों में ईश्वर के अन्य नामों में अग्नि को भी ईश्वर का नाम बताया है। इसका कारण यह है कि ईश्वर अग्नि के समान ही प्रकाशस्वरूप है। जिस प्रकार अग्नि सदैव ऊपर को जाती है उसी प्रकार ईश्वर भी हमें ऊध्र्वगामी बनाकर ऊपर की ओर ले जाता तथा उन्नति करने के अवसर देता ही रहता है। ऐसा हमारा परमात्मा अनादि काल से सब जीवों के प्रति कर रहा है। आज भी हमें अपने दुःखों की निवृत्ति के लिये अवसर सुलभ है जिन्होंने ईश्वर ने ही सुलभ कराया है। अतः प्रकाश व ज्ञानस्वरूप होने से ईश्वर अग्नि हैं। हमें ईश्वर के इस अग्निस्वरूप का ध्यान कर भी उसको प्राप्त होना चाहिये व उससे ज्ञान व प्रकाश की प्रार्थना करनी चाहिये।

सृष्टि के सभी पदार्थ परमात्मा ने मनुष्यों अन्य जीवधारियों के सुख उपयोग के लिये ही बनाये हैं। यदि ईश्वर होता तो सृष्टि और इसमें उपलब्ध जीवों को सुख देने वाले पदार्थों को कौन बनाता? अनेक मनुष्य तो ऐसे भी होते हैं जो कृपण मनुष्य को उसके द्वारा याचना करने पर भिक्षा तक नहीं देते। ईश्वर ही एकमात्र ऐसी सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान सत्ता है जो प्रत्येक जीव को माता, पिता तथा आचार्य आदि से भी अधिक प्रेम करती स्नेह प्रदान करती है। ईश्वर की भक्ति आज्ञा पालन करने पर भी हमारा वह परमात्मा हमसे कुपित नहीं होता और उस स्थिति में भी हमें हमारे कर्मों का सुख दुःख रूपी यथायोग्य उचित फल देकर हमारे सुधार करने में तत्पर रहता है। परमात्मा के समान जीवों का अन्य कोई सुहृद मित्र, बन्धु, सखा व हितैषी नहीं है। माता-पिता भी अपनी संतानों से अनेक प्रकार की अपेक्षायें रखते हैं परन्तु परमात्मा तो हम से बिना किसी अपेक्षा के ही हमारे हितों की पूर्ति के लिये अनादि काल से अपने उपकारों की वर्षा हम पर किये जा रहा है। ईश्वर के उपकारों पर बहुत कहा जा सकता है। अनेक विद्वानों इस विषय पर अपने ग्रन्थों में बहुत लिखा है। वेदभाष्य पढ़ते हुए भी हमें ईश्वर की मनुष्यों व जीवों पर कृपा के अनेक प्रसंग व उदाहरण मिलते हैं। उन्हें पढ़कर हमारी ईश्वर के अध्ययन व उपासना में प्रवृत्ति सुदृढ़ होती है।

परमात्मा ने यह विशाल एवं भव्य सृष्टि जीवात्माओं के सुख कर्म करने के लिये बनाई है। जीवात्मा को मनुष्य का जन्म मिले या किसी अन्य प्राणी योनि में, सभी योनियों में जीवात्माओं को अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं। मनुष्य योनि में सुख अधिक दुःख कम होते हैं। इस योनि में भी जन्म लेने मृत्यु के समय दुःख तो साधु महात्माओं को भी होता ही है। जीवनकाल में भी मनुष्य को आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक दुःख होते ही रहते हैं। अतः परमात्मा ने कृपा करके जीवों को सृष्टि के द्वारा सुख प्राप्त करते हुए जन्म मरण से मुक्त होने के लिये मोक्ष के आनन्द का सुख प्रदान करने की व्यवस्था भी की है। मोक्ष में जीवात्मा को किसी प्रकार का लेश मात्र भी दुःख नहीं होता। मोक्ष में जीवात्मा ईश्वर के आनन्दमय साहचर्य व सान्निध्य में रहता है। वह मुक्त-जीव लोक-लोकान्तरों में भ्रमण करता तथा मोक्ष में ईश्वर से प्राप्त सामथ्र्य से मुक्त जीवों से मिलता व उनसे बातचीत करता है। मुक्त जीव मोक्ष में आनन्द का भोग करता है तथा दुःखों से पृथक रहता है। इसी प्रकार सांसारिक माता-पिता भी अपनी सन्तानों को सुखी करने के अनेक प्रयत्न करते हैं। सांसारिक माता-पिता की सामथ्र्य सीमित होती है इसलिये वह जितना चाहते हैं वह सब कुछ नहीं कर पाते। परमात्मा ही हमारा वास्तविक माता व पिता है जो हमें मोक्ष सुख देना चाहता है। इसके लिये हमें भी वेदाध्ययन एवं ऋषियों के ग्रन्थों सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों का अध्ययन कर तथा मोक्ष प्राप्ति के साधनों व उपायों को करके मोक्ष को प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ करना चाहिये। मोक्ष की प्राप्ति होने तक जीवात्मा जन्म व मरण लेता हुआ भटकता रहता है।

परमात्मा ने यह संसार अपनी अनादि प्रजा जीवों को सुख देने सहित मोक्ष प्रदान करने व पुरुषार्थ करने के लिये बनाया है। इसे जानकर व अपने जीवन को वैदिक साधनाओं से युक्त कर हम अपने अपने मनुष्य जीवन को सुखी व मोक्षगामी बना सकते हैं। यही हमारे जीवन का लक्ष्य है। हमें इस मार्ग पर हम सबको आगे बढ़ना चाहिये। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य