लघुकथा – बस्ती
जंगल में मशीनें धड़धड़ातीं, जंगल के बीच बसी बस्ती की झोंपड़ियाँ काँप जातीं, भूख दबे पाँव बस्ती की तरफ़ थोड़ा और बढ़ जाती। भूख जब बर्तनों के भीतर प्रवेश कर गई तो लिपी-पुती झोंपड़ियों में रहने वाले लोग रेलगाड़ी में बैठकर शहर की तरफ़ कूच कर गए। उनके साथ ही झोंपड़ियों, तालाबों और पेड़ों की रूहें भी रेलगाड़ी में लद गईं। कुछ समय बाद प्रवासी पक्षी गाँव में पहुँचे तो उन्हें लोग दिखाई नहीं दिए। वीरान झोंपड़ियों की या तो छतें ढह गई थीं या दीवारें। मनहूस मलबा मुँह चिढ़ा रहा था। मुर्दा पेड़ों के लटके, पीले पत्तों ने उनसे बात नहीं की। पक्षी उन्हें झिंझोड़ते रहे, पत्ते न कुछ बोले, न आँखें खोलीं। तल से लगा काई ढका तालाबों का पानी निष्चेष्ट पड़ा था, हवा के झोंके आते, पर पानी में लहर नहीं उठती। पक्षियों ने जल क्रीड़ा करते हुए महसूस किया कि जैसे वे जल के शव को चिंचोड़ रहे हैं।
पक्षी उजड़े गाँव को देख दहल गए और फ़ैसला किया कि वे पलायन कर चुके लोगों को खोजेंगे। उन लोगों को खोजते पक्षी अब तक खोज में जुटे हैं- शहर-दर-शहर। उनकी आँखें धुएँ से भर गई हैं, पंख काले पड़ गए हैं, तन जर्जर हो चले हैं; पर ज़िद है कि वे लोगों को घरों में लौटा लाएँगे। और उधर उजाड़ बस्ती में सुना है झोंपड़ियों की जगह फ़्लैट बन गए हैं, जंगल के पेड़ गमलों में आ सिमटे हैं, पानी अब तालाबों में नहीं, टैंकों में रहता है। इस बस्ती में लोग रहते हैं। इसी बस्ती में लोगों के साथ रक्तपायी पिशाच भी रहते हैं।
— हरभगवान चावला