स्वार्थ लोलुप मानव देखो, कैसे तुमको हैं काट रहे।
अपने ही पतन को देखो, अब भी नहीं हैं भाँप रहे।।
प्रदूषण के विकराल दानव, तभी तो उनको हैं ग्रास रहे।
सदियों ही से तुमने तो, उसको जीवन के उपहार दिए।।
जाने कितने ही कवियों के, महाकाव्यों को आकार दिए।
यमुनातट के कदम्ब हुए, कान्हा का लीला-स्थल हुए।।
पंचवटी निर्मित कर,माँ सीता के सतीत्व के रक्षक बने।
स्वार्थी मानवों की कुटियों के भी तुम स्तंभ बने।।
कला संस्कृति के नाम,कलाकृति हो दीवारों पर रहे टंगे।
बाल्य लालसाओं की खातिर तुमने कितने आकर लिए।।
जीवन ने जब झटके हाथ,हो सवार तुम्हीं पर चल दिए।
इतना ही नहीं था काफी, संग तुम धू-धू करके जल दिए।।
हे! कान्हा के कदम्ब तुम, और वट सावित्री के वट तुम।
हो प्राणदायिनी वायु के दाता औ जीवन के केवट तुम।।
देवदार स्तम्भ का पा अवलम्ब संस्कृति पल्ल्वित हुई।
किन्तु विडम्बना कि ये तुम्हारे सारे ही ऋण भूल गई।।
तुम आश्रय हो,आशय हो, तुम मेरे जीवन के प्राणाधार।
हो धरा का सुकोमल आँचल,माँ ने ज्यों दिया पसार।।
विहगों का तुम आश्रय-स्थल,कवि-कल्पना का आकार।
हे! वृक्ष तुम जीवन दाता, हो मेरे इन प्राणों का आधार।।
तुम ही से होता आया,जीवन सहस्त्र सदियों से साकार।
तुम ही तो हो देते आए, जीवन को प्राणवायु का सार।।
— ज्योति अग्निहोत्री ‘नित्या’