मेरे ख्वाब की खिड़कियां
ख्वाब की खिड़कियां खुल गई हैं उनकी,
जिन्हें रोज शराब और शबाब मिलता है।
मेरे ख्वाब की खिड़कियां भला क्या खुलेगी,
हाड़तोड़ मेहनत पर भी न सुराख मिलता है।
आज भी जुबान खोलने पर इस लायक
न हो तुम लोग,मुझे यह एहसास मिलता है।
उनको हर जगह सिर्फ आदर सत्कार नहीं,
वायुयान और ट्रेनों में भी मसाज मिलता है।
मुझे ट्रेन की एसी बोगियों में पैर रखने की
जगह क्या,दूर भागो की आवाज मिलता है।
कितना सुनाएं अपने दर्दे दिल की दास्तां,
जातिगत गालियां सहज अंदाज मिलता है।
कोई जन्म से ही पवित्र,पर कितना भी पोथी
पढ़ लें हम,शूद्र हो तुम की आवाज मिलता है।
लाख कोशिश करने पर कहां हम लोगों को,
शासन में हिस्सेदारी व देश के ताज मिलता है।
वे बोल दें तो कानून,कुछ कह दें तो सविधान,
पर एक समान न्याय हमें न आज मिलता है।
एलएलबी,एमबीए,पीएचडी करने पर भी मुझे,
अनपढ़,जाहिल का दर्जा बेअंदाज मिलता है।
— गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम