कविता

शिव और प्रकृति संवाद

हर जन्म में,
मैं अथाह तप करती हूं,
तुम्हें पाने की खातिर में हर बार मरती हूं।
तुम तो मगर जीवन मृत्यु से परेह हो,
कालों के काल महाकाल “मृत्युंजय” हो,
मैं तो हर बार फसती हूं जीवन चक्र की दुविधाओं में,
हर जन्म में मैं मिलती हूं,
और हर बार बिछड़ती हूं,
अनादि रूप,स्थिर भाव हो तुम,
परिवर्तनशील मैं तो प्रकृति हूं।
मेरे मान पर जब-जब आँच आती हैं,
स्थिर भाव छोड़कर तब तब तुम रूद्र बनकर विनाश और संहार करते हो,
क्योंकी मेरे मान के रक्षक सिर्फ तुम्हीं तो हो।।
— दिव्या सक्सैना

दिव्या सक्सेना

कलम वाली दीदी श्रीकृष्ण कालोनी,धान मील के पीछे,मस्जिद वाली गली,सिकंदर कम्पू लश्कर ग्वालियर-म0प्र0