गीतिका
कोई मीत नही हैं मेरा ,कोई स्वजन ,न कोई भाई।
सबके सुख दुख होगें अपने,मेरी उदासीन तनहाई ।
अक्सर बोझ समझदारी के,यह मुझसे पूछा करते हैं,
बालक से तू वृद्ध हो गया,कब बीती तेरी तरुणाई ?
दर्पण मौन देखता रहता,दृग से मोती झर जाते है,
हम चुपके से रो लेते हैं,जब हो बोझों की अधिकाई।
सुख में सब अपने होते हैं, दुख में केवल धैर्य तुम्हारा,
यह जगती की रीति पुरानी,झूठे जग की यह सच्चाई।
श्वान,भेड़,सूकर,सियार,खर,लोमड़, इंसानों के अंदर,
हुयीं बस्तियाँ जंगल जैसी ,कहाँ भला खोजूँ मनुसाई ?
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी