धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आत्मा, अनादि, अविनाशी व जन्म-मरण धर्मा है तथा मोक्ष की कामना से युक्त है

ओ३म्

संसार में तीन अनादि तथा नित्य पदार्थ हैं। यह पदार्थ हैं ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति। ईश्वर सत्य चित्त आनन्दस्वरूप एवं सर्वज्ञ है। आत्मा सत्य, चेतन एवं अल्पज्ञ है। प्रकृति सत्य एवं जड़ सत्ता है। अनादि पदार्थ वह होते हैं जिनका अस्तित्व सदा से है और सदा रहेगा। इन्हें किसी अन्य सत्ता ने उत्पन्न नहीं किया। इन तीन पदार्थों की सत्ता को स्वयंभू सत्ता कहा जाता है। ईश्वर सर्वशक्तिमान, अजन्मा, निराकार, सर्वव्यापक तथा सृष्टिकर्ता है। ईश्वर में इच्छा नहीं है जैसी कि मनुष्यों व प्राणियों में देखी जाती है। इच्छा न होने से उस इच्छा की पूर्ति के लिये परमात्मा कोई कर्म भी नहीं करता। इस कारण से वह कर्म के बन्धनों में नहीं फंसता और उसको मनुष्यों की भांति सत्यासत्य व पाप पुण्य कर्मों के समान कर्म बन्धनों व क्लेशों में नहीं फंसना पड़ता। जीव में इच्छा, द्वेष आदि प्रवृत्तियां होती है। इससे वह जो कर्म करता है उसके अनुसार उसे कर्म बन्धन में फंसना पड़ता है और न्यायाधीश के रूप में सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी परमात्मा सब जीवों को उनके पाप व पुण्य सभी कर्मों के सुख व दुःख रूपी फल देता है। मनुष्य के कर्म ही भविष्य में मनुष्य की जन्म, पुनर्जन्म व मृत्यु का कारण बनते हैं। हमारा यह जन्म भी हमारे पूर्वजन्म के कर्मों का फल प्राप्त करने वा भोगने के लिये ही हुआ है। हमने जो पूर्वजन्म में कर्म किये हैं उनका फल तो हमें इस जन्म में मिलता है। जो कर्म बच जाते हैं उन्हें नया जन्म लेकर भोगना ही पड़ता है। यही परमात्मा की व्यवस्था इस सृष्टि में दृष्टिगोचर होती है जिसका विधान वेद तथा ऋषियों के सत्यज्ञान से युक्त ग्रन्थों में मिलता है। मनुष्य जब वेद आदि सत्शास्त्रों को पढ़ता है तो उसे यह स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि हमारी व अन्य सभी आत्माओं ने अनादि काल से अब तक असंख्य बार अपने अपने कर्मानुसार भिन्न भिन्न योनियांे में जन्म लिये हैं। जन्म के बाद आयु का भोग करने के बाद सबकी मृत्यु व पुनर्जन्म होता रहता है। जन्म व मरण का यह चक्र रुकने वाला नहीं है। यह सदा से चलता आ रहा है और सदा चलता रहेगा। हम अनन्त काल तक वर्तमान जन्म के समान संसार की अनेकानेक प्राणी योनियों में अपने कर्मानुसार जन्म लेते रहेंगे।

विज्ञान का नियम है कि संसार में न तो कोई नया पदार्थ बनाया जा सकता है और न ही उसे नष्ट किया जा सकता है। नष्ट होने का अर्थ उसका स्वरूप परिवर्तन होना होता है। पानी को गर्म करने पर वह भाप बनकर उड़ जाता है परन्तु उसका अस्तित्व बना रहता है। यदि ईधन को जलाते हैं तो वह भी सूक्ष्म अदृश्य पदार्थों व धुएं के रूप में परिविर्तत होकर वायुमण्डल में फैल जाता है परन्तु उसका अभाव नहीं होता। वह अन्य रूप में संसार व वातावरण में विद्यमान रहता है। इसी प्रकार से आत्मा की मृत्यु होने पर उसका अभाव रूपी नाश नहीं होता। उसका अस्तित्व बना रहता है। आत्मा शरीर से निकल कर वायुमण्डल व आकाश में जाती है। शरीर से आत्मा का निकास सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी परमात्मा की प्रेरणा से होता है। आत्मा को पता नहीं होता कि यह प्रक्रिया किस प्रकार से सम्पन्न होती है। उसे यह आभास अवश्य होता है कि उसका शरीर निर्बल व निष्क्रिय हो रहा है। आत्मा व प्राण आदि से युक्त सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर से निकलते समय तक आत्मा को इसका कुछ ज्ञान व आभास रहता है। शास्त्र व विवेक से ज्ञात होता है कि यह आत्मा सूक्ष्म शरीर सहित अपने देह से निकलने पर परमात्मा की प्रेरणा से अपने कर्मानुसार भावी माता-पिता के शरीर में प्रविष्ट होता है जहां इसके जन्म की कालावधि व्यतीत होने पर जन्म होता है। जब तक मनुष्य अपने सभी कर्मों का भोग कर उनका क्षय नहीं कर लेगा, तब तक जन्म व मृत्यु का चक्र चलता ही रहेगा। जन्म व मृत्यु न हो इसके लिये हमें अपने इच्छा व द्वेष की प्रवृत्ति को जानकर उसको पूर्ण नियंत्रित करना होगा और वेदों का अध्ययन कर उससे प्राप्त ज्ञान के अनुसार जीवन बनाना होगा। मनुष्य वेदों के ज्ञान को प्राप्त होकर निष्काम कर्मों को करके ही उनके फलों से मुक्त होता है और ईश्वर की उपासना, अग्निहोत्र यज्ञ एवं अन्य सभी शुभ कर्मों के परिणाम तथा योगाभ्यास आदि से ईश्वर का साक्षात्कार करने से उसको दीर्घकालावधि के लिये जन्म व मृत्यु से अवकाश प्राप्त होता है जिसको मोक्ष कहते हैं। मोक्ष का तर्क एवं युक्तियों सहित वर्णन ऋषि दयानन्द ने वेदों के आधार पर अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में किया है। वहां इसका अध्ययन कर इसे समझा जा सकता है और मोक्ष प्राप्ति की प्रेरणा ग्रहण कर उसके लिये आवश्यक उपाय भी किये जा सकते हैं।

संसार में जन्म लेने वाले सभी प्राणियों की मृत्यु अवश्यम्भावी होती है। गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को बताया है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु का होना निश्चित है तथा जिस प्राणी की मृत्यु होती है उसका जन्म अर्थात् पुनर्जन्म होना भी निश्चित है। गीता की यह बात वेद एवं ऋषि दयानन्द के मन्तव्यों के अनुरूप एवं सर्वथा सत्य है। जन्म किसी भी योनि में हो जीवन काल में सुख व दुःख सभी प्राणियों को हाते हैं। मनुष्य व प्राणी सुख की इच्छा करते हैं। कोई भी प्राणी दुःख की इच्छा कभी नहीं करता। सभी दुःखों से निवृत्ति तथा भविष्य में कभी किसी भी प्रकार का कोई दुःख न हो, इसकी कामना करते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही हमारे ऋषियों ने वेदों का अध्ययन कर व उसमें मोक्ष संबंधी विचारों का संग्रह कर उसे दर्शन, उपनिषद तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। परमात्मा जन्म व मरण से सर्वथा मुक्त एक सत्ता है। वह सर्वशक्तिमान एवं सृष्टि की नियन्ता शक्ति है। वह जीवों को सुख की इच्छा से किये जाने वाले कर्मों का फल देते हैं। यदि मनुष्य सुख की इच्छा न कर दुःखों की निवृत्ति की इच्छा करें और उसके साधनों व उपायों का विचार कर वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों का आश्रय लें, तो उन्हें विदित होता है कि वेदाध्ययन व वेदाचरण ही मनुष्य को सभी दुःखों से छुड़ाकर मोक्ष वा मुक्ति का आनन्द प्रदान कराते हैं। मोक्ष के विषय में ऋषि दयानन्द के वचन हैं कि जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है वह अविद्या अर्थात कर्म व उपासना से मृत्यु को तर के विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द यह भी बताते हैं कि मुक्ति उसे प्राप्त होती है जो बन्धनों में फंसा होता है। बद्ध वह होता है जो अधर्म व अज्ञान में फंसा हुआ होता है। अतः अधर्म व अज्ञान से छूटने पर मुक्ति का होना सम्भव होता है।

मनुष्य की आत्मा की मुक्ति व बन्धन किन-किन बातों से होता है इस पर भी ऋषि दयानन्द ने प्रकाश डाला है। वह बताते हैं कि परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने, वेद विधि से परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करें वह सब पक्षपातरहित न्याय-धर्मानुसार ही करें। इन साधनों से मुक्ति और इन से विपरीत ईश्वराज्ञाभंग करने आदि काम से बन्ध व जन्म-मरण होता है। मुक्ति से जुड़े अन्य अनेक प्रश्नों व शंकाओं का भी ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में समाधान किया है। अतः सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन अवश्य ही करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने से मनुष्य को ईश्वर व जीवात्मा सहित सभी विषयों का आवश्यक ज्ञान हो जाता है जैसा ससंार में किसी अन्य ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होता।

सभी मनुष्यों को ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप को जानना चाहिये। जीवात्मा व मनुष्य जीवन के उद्देश्य सहित जीवात्मा के लक्ष्य पर भी विचार करना चाहिये। ऐसा करके हम अपनी आत्मा व जीवन का अवश्य ही कल्याण कर सकेंगे। सत्यार्थप्रकाश सभी मनुष्यों का मित्र व सहयोगी के समान है। यदि हम सत्यार्थप्रकाश को अपना मित्र व मार्गदर्शक बनायेंगे और इससे परामर्श लेंगे तो हमारा, समाज व देश का अवश्य ही कल्याण होगा। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य

2 thoughts on “आत्मा, अनादि, अविनाशी व जन्म-मरण धर्मा है तथा मोक्ष की कामना से युक्त है

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते आरणीय श्रद्धेया बहिन जी। आपके आशीर्वाद के लिएृ हार्दिक धन्यवाद। अपनी कृपा इसी प्रकार बनाये रखें। सादर।

  • लीला तिवानी

    आदरणीय मनमोहन भाई जी, आपके आध्यात्मिक आलेख मन को सुकून देने वाले होते हैं. इस आलेख में भी आपने अनादि शब्द की विस्तृत व स्पष्ट व्याख्या की है. बहुत सुंदर आध्यात्मिक व उपयोगी आलेख के लिए बधाई.

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