मानव स्वयं बने देवालय
मानव ने चाहा मंदिर बने, मस्जिद बने, गिरजाघर बने
गुरुद्वारा बने आदी,
आस्था और विश्वास का केंद्र है सभी,
अच्छी बात है ये,
मगर बहुत कुछ बाकी है अभी भी
बहुत कुछ ऐसा है जो है अधूरा हैं अभी भी,
क्योंकि जब तक मन में भेदभाव है
आडंबर है,दिखावा है, प्रपंच है आदी,
तब तक धर्म में भी
बोलबाला है अधर्म के होने का भी,
आत्मसात पूर्ण रूप से किए बगैर
उस आलौकिक शक्ति के संदेशों को जीवन में,
बातें सारी काल्पनिक हैं बडी़ बडी़,
इस धरा पर इंसानों की,
देवालय बने इंसानों का मन भी
आचरण में शिक्षा हो ईष्ट,गुरु की
सही मायने में ही,
आत्मसात कर पाए मानव आध्यात्मिक ज्ञान का जीवन में,
और इंसानियत का रिश्ता निभा सके
एक दूसरे से,
कम से कम इतना विवेक,व्यवहार तो रहे।
मानव जीवन का हैं
अधूरा संकल्प अभी भी,
बन नहीं जाता मन हर इंसान का
देवालय जब तक,
और पहुंच नहीं जाता आध्यात्मिक शिखर तक
मानव जीवन इस धरती पर,
राजनैतिक, सांसारिक, व्यक्तिगत भटकावों से परेह जाकर
और आध्यात्मिक मकसदों पर ही अडिग रहकर,
अटूट आस्था विश्वास रखकर,
तब उस दिन पूर्ण होगा प्रयोजन धरती पर
मानव जीवन के होने का सच्चे मायनों में
धर्म के प्रति वास्त्विकता में,
जब अध्यात्म को आत्मसात करके सच्चे अर्थों में,
ना कि धर्म को अखाड़ा बना कर
आस्था का युद्ध करवाने में,
वर्चस्वता हासिल करने में
शायद उस दिन
प्रसन्न होगी वह आलौकिक शक्ति भी,
मानव से,मानव की करनी पर,
मानव के होने पर,उसके अस्तित्व पर इस संसार में।।
— दिव्या सक्सेना, कलम वाली दीदी