गीतिका
पीड़ा के गीत हो रहे हम ,रोज कलम से ।
चुपचाप प्रिये ! रो रहे हम,रोज कलम से ।
कुछ दाग हैं समाज पर,जो मिट नही सके,
घिस घिस के उन्हें धो रहे हम,रोज कलम से।
पीड़ा है हिम प्रहार सी ,धड़कन ठिठुर रही,
साँसो में आग बो रहे हम,रोज कलम से ।
मुझको ये जिलायेगी,मेरे बाद कह रही ,
साँसो को अपनी खो रहे हम ,रोज कलम से।
सप्ताह ,मास ,वर्ष , उबाऊ लगे मुझे
कि आज ,कल,परसों रहें हम,रोज कलम से।
© ———डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी