सीख मेरे आराध्य से
तुम तक हर कोई आसानी से ना पहुंच सके
पार करने पड़े राही को अथा कठिन रास्ते,
पीना पड़े गरल जब मंथन हो जीवन के
सुख दुख के सागर में,
खाना पड़े जटिलताओं के बेलपत्र भी उसे
जब जब समय की मार के थपेड़े पड़े,
आत्म सम्मान भी कायम रख सके
तुम्हारा वो हिमालय के जैसे,
भेद सके हर भाव को मन के
जो समझ सके इतना प्रखर तुम्हें,
मन के हिमालय पर यात्रा करते करते
विरक्ति के भावों की जमी हिम की परतों को वो
अपनी निष्ठा और लगन से पिघला सके,
आत्मीयता हो इतनी गहरी उसमें
कि पीछे ना हटे वो
आ जाऐं चाहे कैसी भी स्थिती इस तीर्थ की यात्रा में ,
करना पडे़ श्रृँगार जीवन में उसे
बिना आडम्बर के,सादगी की राख से,
जीवन भर साथ निभाने का संकल्प लेकर
जो दृढ़ निश्चयी हो तप करने में,
यदी इतने प्रयासों के बावजूद भी
तुम्हारे लिऐ टूटे ना कभी आस उसकी ओर से,
प्रेम को पाने की और प्रवेश कर जाऐं वो
द्वार पर तुम्हारे मन के कैलाश पर यदी,
उस प्रखर प्रेम के शिखर पर
त्याग देना मन की हट को एकाकी जीने की तुम भी,
तब तुम बना लेना अपनी गौरा उसे
और स्वयं भी रहना बनकर भोले,निःछल,निस्वार्थी उसके प्रति जीवन में,
शंकाओं से परेह रहकर शंकर बनना तुम भी
कदम से कदम मिलाकर चलने को संग उसके जीवन भर,
बन जाना गंगाधर तुम भी सह लेना मुश्किलों के वेग को सामाजिक दवाबों को,
प्रेम पथ की अद्भुत्ता सार्थक करना,
आध्यात्मिक स्वरुप को पाना गृहस्थी में रहकर,
साध लेना जीवन को तुम भी
सदैव साथ देकर उसकी तपस्या में,
हां पूर्ण होना तुम भी इस जीवन के सफर में और सार्थक करना साथ खुद का भी उसके जीवन में।।
— दिव्या सक्सेना कलम वाली दीदी