मृगतृष्णा गीत
चाह रहा हिय कभी न टूटे,
जीवन की यह डोर।
हाय अभागी ओ मृगतृष्णा!
कहाँ तुम्हारा छोर?
रूप बदलता भाग रहा हैै,
समय बहुत बलवान।
समझ सका हैै मनुज भला क्या,
विधि का कभी विधान?
ईश मिलाते इष्टजनों से,
करें हृदय के पास।
तोड़ रहा पर द्वेष-दंभ नित,
प्रेम और विश्वास।।
तप्त यामिनी दग्ध दिवस हैं,
छाया तम घनघोर।।१।।
चाह रहा हिय कभी न टूटे,
जीवन की यह डोर।।
पीड़ा की गागर छलके जब,
बहे अश्रु की धार।
होता है तब जीना दुष्कर,
श्वास लगे बस भार।
कभी न होते हैं दुख स्वाहा,
होते व्यर्थ उपाय।
तत्क्षण दिखते व्याकुल कितने,
प्राण-प्राण असहाय।
क्यों जलती है चिता स्वप्न की,
पूछें भीगे कोर।।२।।
चाह रहा हिय कभी न टूटे,
जीवन की यह डोर।।
ऊषा के माथे पर रचता,
जो कुँकुम श्रृंगार।
वही दिवा के पग छू करता,
व्यक्त प्रेम-आभार।।
रँग देता है वही महावर,
जैसे बरसे फाग।
कोकिल के कोमल स्वर में वह,
मधुर छेड़ता राग।
सुख की वंशी लिए हाथ में,
विहँस रहा चितचोर।।३।।
चाह रहा हिय कभी न टूटे,
जीवन की यह डोर।।
आयें हर्षित होकर ऋतुएँ,
बरसाएँ उपहार।
आतुर हों प्रतिक्षण देने को,
सुखद एक संसार।।
चिर काल हँसे यह जग सारा,
चिरजीवी हो नेह।
चिरयुवा सृष्टि की सुन्दरता,
महकाये हर गेह।।
जब तक पुष्प खिलें धरती पर,
रहे सुहानी भोर।।४।।
चाह रहा हिय कभी न टूटे,
जीवन की यह डोर।।
ढूँढ़ रहा है किसको ये मन,
गंगा के उस पार।
कौन खड़ा हैै तट पर जिसको,
नयना रहे निहार।
भेज रहा क्या लहरों के सँग,
वही मुझे संदेश।
हँसी ‘अधर’ पर लेकर अद्भुत,
लिए अनोखा वेश।
कैसा है शीतल सम्मोहन,
खींचे अपनी ओर।।५।।
चाह रहा हिय कभी न टूटे,
जीवन की यह डोर।।
— शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’