सरहद के पार
खड़ा विचारों के धरातल
अक्स देखता उनका अविचल
मंद स्मित रेखा से परिवर्तन
हो जाता आकार विस्तीर्ण।
ढप जाता भूगोल काय का
उभर आते नृत्य करते
मंद हास में करूणा का सागर।
स्मित लहरी में नर्त्तन करती
उजड़ी बस्ती बसी हृदय में
मनुज टूटता श्वास ले रहा
चक्षु में दिखता उजड़ा दरिया।
सरहद के पार स्मित रेखा
विरोध रोष से अधर कम्पित
मिलता संबल शोषित मनुज को।
उठी आवाज समवेत सिसकती
कितनी पीड़ा समुदायों की।
अश्रु से अविचल हो जाता
पीड़ा सागर चढ़ता जाता।
‘रूद्राक्षी’ निराकार से आकार में
सरहद के पार स्मित रेख से मानव
हर बार भिगो देती,डुबो देती।