भीष्म-युद्धिष्ठिर संवाद
प्रणाम कुलशीर्ष पितामह!
आशीष धर्मराज! अनुकंपा है केशव की तुम पर।
कहो! याचक बनकर अभीष्ट वर मांगने….
या संशय के तम में दिशाहीन जीवन-नौका…!
अन्तरतम की पीड़ा का सार चिह्नते आप
हूक हिलोरे रह-रह जाती
विचलित करती मन को शर्बरी
निज हिय धर्म नहीं अब…
प्रकृति न थी मेरी हिंसा का व्यापार।
पश्चात युद्ध! तरस न कोई मुझ पर खायेगा
सहृदय जन भी मुझ पर प्रश्नचिन्ह लगाएगा
तर्क-वितर्क से इतिहास पृष्ठ उज्ज्वल न होंगे
हे कुटुम्ब श्रेष्ठ! समर न करूँँगा अब
कुरुराज विभूति की चाह थी हमको कब!
हे न्यायप्रिय धर्मराज! मलिन विलोचन न कर
अनिष्ट शंका-उर्मि का समाधान समर है!
न्याय-तत्त्व शांति पथ ही अमर है
न धिक्कार निज व्यथा से मन को
शांति-सुधा बहेगी महासमर उपरांत
न समय शास्त्रार्थ का……।
क्या भूल सकते हो मूक सभा में चीरहरण…
वंश मर्यादा भूल कौरव अन्यायी
कर्कट-से छल छद्मी
चूस मकरंद जनजीवन का
शोषण अन्याय में मध्यस्थ सहायक शकुनि कर्ण
अत्याचारी दमन जरूरी…….।
होगा वादानुवाद इतिहासों में चर्चित धर्मराज!
छोड़ दुश्चिंता! यथेच्छ साधन से कर समर जय
प्रबलेच्छा है मेरी कुचले जाये फण नागों के
बंधा राज सिंंहासन से प्रण मेरा…
पर! राजन घोषित हो तुम विजयोपरांत।
धर्मराज! शाश्वत सत्य-न्याय-शांति
नित्य विचरे प्रजा हिय में
पुष्परस से भाव सरस हो जन-जन में
स्मरण रहे हे ज्येष्ठ कौन्तेय!
सत्ता में समभागी हो श्रमजीवी
सम वितरण हो द्रव्य जन में
शासन रूपी जलयान श्रमिक ईंधन पर चलता
राजसिंहासन के तिलक-अक्षत
इनके पसीने से सींचे हुए
कुमकुम मिलता राज समाजों को इनसे
मेहनतकश से चले सिंंहासन
भेद न रहे शासक-शासित में
मिलता है महलों को रोटी-कपड़ा इनसे।
समर ही शांति का मार्ग है
करुणा का प्रसार हृदय शुद्धि साधन
हे धर्मराज! विचलित न हो।